April 26, 2024

बड़े देशों ने नहीं निभाई अपनी जिम्मेदारी- सी के मिश्रा

जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए पोलैंड में जारी कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की बैठक में पेरिस समझौते की कार्यविधि तय होनी है। समस्या यह है कि गरीब और विकासशील देशों की अपनी दिक्कतें हैं, जिसके चलते विकसित देशों की मदद के बिना उनके लिए इन खतरों से निपटने के उपाय कर पाना मुश्किल होगा। इस बैठक में उठाए जाने वाले मुद्दों को लेकर केंद्रीय वन, पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज विभाग के सचिव और कांफ्रेंस में भारतीय टीम का नेतृत्व कर रहे सी के मिश्रा से दस्तावेज़ टीम ने बातचीत की प्रस्तुत हैं मुख्य अंश-

कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की बैठक में भारत का फोकस किन-किन मुद्दों पर रहेगा?
मुख्य रूप से भारत तीन मुद्दे उठाने जा रहा है। पहला और अहम मुद्दा यह है कि विकसित और विकासशील देशों को एक ही पैरामीटर पर न रखा जाए। विकसित देश चाहते हैं कि सभी देशों के लिए नियम एक जैसे हों। हम इसके खिलाफ हैं। विकासशील और गरीब देशों की अपनी चुनौतियां हैं, इसलिए जलवायु वार्ता में सभी देशों को एक ही नजरिये से नहीं देखा जा सकता। विकसित देशों की जिम्मेदारी ज्यादा है। दूसरा, हम चाहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए जितने हमारे विषय हैं, सब पर बराबर-बराबर प्रगति हो। रूल बुक इस बैठक का अहम एजेंडा है। हम चाहते हैं कि रूल बुक बने, मगर एक-दो विषयों पर नहीं, सभी विषयों पर, ताकि इस चुनौती से निपटने की राह खुले। तीसरा महत्वपूर्ण विषय वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता से जुड़ा है। भारत चाहता है कि विकसित देश अपनी जिम्मेदारी निभाएं और हरित कोष में सौ अरब डॉलर की राशि देने का अपना वादा पूरा करें।

पेरिस समझौते के आलोक में इस रूल बुक का आखिर कितना महत्व है?
देखिए, रूल बुक एक प्रक्रिया है। पेरिस में एक समझौता हुआ था कि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने के लिए हर देश अपने उत्सर्जन को कम करेगा। अब उसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया तय हो रही है। व्यवस्था बन रही है। इसमें तय किया जाएगा कि पेरिस में जो हमने कहा था, अब उस पर आगे क्या होगा और कैसे होगा? हम कह सकते हैं कि रूल बुक इस समझौते की कार्यविधि है।

क्या रूल बुक में पेरिस समझौते के क्रियान्वयन की तिथि भी तय की जाएगी?
जरूरी नहीं है। पर जब इसे अंतिम रूप दिया जाएगा, तो संभव है कि कुछ बिंदुओं के लिए समय-सीमा तय हो।

जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए हमारी क्या उपलब्धियां रही हैं?
भारत ने विश्व के समक्ष जो प्रतिबद्धताएं रखी थीं, उस दिशा में बहुत अच्छा काम हुआ है। चाहे सकल घरेलू उत्पाद के अनुरूप उत्सर्जन की तीव्रता में कमी लाने का लक्ष्य हो या फिर वैकल्पिक ऊर्जा के इस्तेमाल का, हर क्षेत्र में हमारी उपलब्धियां बेहतर रही हैं। यदि हम वाहनों के उत्सर्जन में कमी की बात करते हैं, तो हम पहले राष्ट्र हैं जो बीएस-4 मानकों से सीधे बीएस-6 पर गए हैं। बीएस-5 पर गए ही नहीं। इसी तरह, इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर भारत ने महत्वाकांक्षी योजना जारी की है। ई-मोबेलिटी पर तेजी से काम होने लगा है। औद्यौगिक उत्सर्जन में कमी लाने के लिए भी सख्त मानक तैयार किए गए हैं, जिन्हें उद्योगों पर लागू किया जा रहा है। रेड श्रेणी के उद्योगों की ऑनलाइन निगरानी शुरू हो गई है। उज्ज्वला योजना के जरिये घर के भीतर का प्रदूषण कम करने की मुहिम छेड़ी गई है। एलईडी, इंटरनेशनल सोलर एलायंस आदि ऐसे कदम हैं, जिनकी पूरी दुनिया में सराहना हो रही है। इतनी सारी उपलब्धियां किसी भी देश के खाते में नहीं हैं।

भारत ने उत्सर्जन की तीव्रता में 30-35 फीसदी की कमी लाने का एलान किया था, इसमें कितनी सफलता मिली?
मैंने पहले ही बताया कि हमारे देश में काम अच्छा हो रहा है। हमने दो घोषणाएं की थीं। एक, 2020 तक उत्सर्जन में 20 फीसदी की कमी और दूसरी, 2030 तक उत्सर्जन की तीव्रता में 30 से 35 फीसदी की कमी लाना। मेरा अपना आकलन है कि हम उत्सर्जन में 20 फीसदी कमी के लक्ष्य के करीब हैं और संभवत इसी वर्ष हासिल कर लेंगे। अगले 15-20 दिनों में यह पता चल जाएगा। रिपोर्ट तैयार की जा रही है। दरअसल, हरेक देश को हर दो साल में रिपोर्ट तैयार करके संयुक्त राष्ट्र को देनी होती है। यह अनिवार्य है। हमारी रिपोर्ट तैयार हो रही है। इसी तरह, 2030 के लक्ष्य को भी हम तय वक्त से पहले हासिल कर लेंगे। 

क्या भारत अपने बल-बूते जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने में सक्षम है?
हां, भारत पूरी तरह से सक्षम है। इसके दो प्रमुख कारण हैं- एक, हमारे यहां राजनीतिक इच्छाशक्ति बहुत है। वित्त की भी कमी नहीं है। दूसरे, लोगों ने भी इसमें अपना योगदान देना शुरू कर दिया है, क्योंकि प्रकृति की रक्षा करना हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। इसलिए मैं यही कहूंगा कि विश्व स्तर पर यदि कोई सहयोग मिलता है, तो उसका हम स्वागत करेंगे। पर उसके बिना भी हम लक्ष्य पाने मेें सक्षम हैं। 

आपने कहा कि उद्योग जगत के लिए कड़े नियम बनाए गए हैं। मगर सवाल यह है कि उद्योग जगत से आपको कितना सहयोग मिल रहा है?
अच्छा सहयोग मिल रहा है। सरकार के स्तर पर एक कॉमन प्लेटफॉर्म तैयार किया गया है, जिसमें उद्योग जगत मिलकर काम कर रहा है। मैं पहले का एक उदाहरण देना चाहता हूं। ओजोन को क्षति पहुंचाने वाली हाइड्रो क्लोरोफ्लोरो कार्बन (एचसीएफसी) गैस को हटाने और उसकी जगह एचएफसी शुरू करने का कार्यक्रम उद्योगों की मदद से ही देश में सफल हुआ है। उद्योगों ने ही लक्ष्य निर्धारित किए और हासिल किए। जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने में ऐसा ही हो रहा है। देश की 25 बड़ी कंपनियों ने अपने एनडीसी तय किए हैं। इसी प्रकार ई-मोबेलिटी के लिए उद्योग जगत आगे आया है। 

जलवायु परिवर्तन वार्ता से अमेरिका के अलग होने को भारत किस तरह देखता है? इसका क्या असर होगा?
इसका असर है, क्योंकि अमेरिका एक महाशक्ति है। उसका इस अभियान में होना कुछ हद तक आवश्यक है। लेकिन हम दूसरा पहलू देखें। अमेरिका सहित पूरा विश्व इस बात पर एकमत है कि जलवायु परिवर्तन सत्य है। इससे विश्व को नुकसान होने वाला है। मुझे नहीं लगता कि अमेरिका के अलग होने से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ चल रही कार्रवाई में कोई कमी आएगी। 

जलवायु परिवर्तन के खतरों से देश को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है, केरल की बाढ़ ताजा उदाहरण है। इस क्षति की भरपाई का कोई तंत्र विकसित होगा?
चर्चा के विषयों में यह शामिल है। हम इस एजेंडे को उठाना चाहेंगे। यह प्रमुख मुद्दा है। कई देश इस खतरे का सामना कर रहे हैं, इसलिए विश्व स्तर पर विचार होना ही चाहिए।

लेकिन भरपाई के लिए धन कहां से आएगा?
यह बाद में तय होगा। पहले इस बाद पर तो सैद्धांतिक सहमति कायम हो जाए कि जलवायु परिवर्तन से हो रही तबाही की भरपाई होनी चाहिए। उसके लिए क्षतिपूर्ति का प्रावधान हो। अभी इस विषय पर सहमति कायम करना और सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए दबाव बनाना हमारा उद्देश्य है। फिर देखेंगे कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे? 

हमारे देश पर इसका सबसे ज्यादा खतरा क्यों है? हाल में लांसेट की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सबसे ज्यादा जोखिम भारतीयों को उठाना पड़ रहा है?
मैंने वह रिपोर्ट देखी नहीं है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारे देश की जनसंख्या ज्यादा है, इसलिए तबाही की घटनाओं का हमारे यहां दुष्प्रभाव ज्यादा है। लेकिन आज इस बात को कोई नकार नहीं रहा है। हर स्तर पर इस खतरे को स्वीकार किया जा रहा है। 

पर्यावरण मंत्रालय ने हाल ही में कूलिंग एक्शन प्लान जारी किया है, इसका क्या तात्पर्य है और कब तक यह अमल में आ जाएगा? 
ऊर्जा की खपत जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है, उनमें एक बड़ा क्षेत्र कूलिंग का है। इसलिए इस क्षेत्र में ऊर्जा की खपत सीमित करने के लिए नियम तय किए जा रहे हैं। सभी देशों को कूलिंग एक्शन प्लान बनाना है। लेकिन इस मामले में भी भारत ने बाजी मारी है। हम पहले राष्ट्र हैं, जो कूलिंग एक्शन प्लान का मसौदा जारी कर चुके हैं। इसमें हम कूलिंग के इस्तेमाल में खर्च होने वाली ऊर्जा में कमी लाएंगे। जैसे एसी के तापमान की न्यूनतम सेटिंग 24 डिग्री पर रखने का प्रस्ताव किया गया है। इस पर जनता से प्रतिक्रिया मांगी गई है। इसके बाद इसका क्रियान्वयन भी शुरू किया जाएगा। इसके लागू होने से कूलिंग क्षेत्र में ऊर्जा की बचत होगी और उत्सर्जन घटेंगे।

क्या इसके बाद हीटिंग एक्शन प्लान भी आएगा?
नहीं-नहीं, कूलिंग एक्शन प्लान में ही हीटिंग भी समाहित होता है। दरअसल, यह थर्मल कंफर्ट की थीम पर प्रयुक्त होता है। 

हरित कोष के लिए विकसित देशों की मदद पर भारत का क्या रुख रहेगा?
भारत चाहता है कि बेसिक देश अपनी प्रतिबद्धता पूरी करें। दूसरे, हम यह भी चाहते हैं कि क्लाइमेट फंड की परिभाषा तय हो। यदि कहीं सड़क बनती है और उससे माइलेज अच्छा निकलता है, तो क्या इस सड़क को बनाने में खर्च राशि को क्लाइमेट फंड मान लिया जाएगा? कई देश ऐसे तर्क देते हैं, लेकिन हम इससे सहमत नहीं हैं। हम चाहते हैं कि क्लाइमेट फंड नया हो, अतिरिक्त हो और उसके इस्तेमाल से सीधे क्लाइमेट पर प्रभाव पड़े। 

हाल में आईपीसीसी की रिपोर्ट आई है, जिसमें तापमान बढ़ोतरी को दो डिग्री की बजाय 1.5 डिग्री तक सीमित रखने की बात कही गई। ऐसे में, क्या उत्सर्जन के नए लक्ष्य तय करने पर चर्चा होगी?
यह एजेंडे में नहीं है। लेकिन इस पर चर्चा जरूर होगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व को एक साथ मिलकर और अधिक कार्य करने की जरूरत है। भले ही लक्ष्य कुछ भी रखे जाएं। यह साफ है कि यदि ज्यादा कार्य नहीं किया गया, तो 1.5 डिग्री क्या, तापमान वृद्धि को दो डिग्री तक सीमित रखना भी मुश्किल हो जाएगा। 
क्या स्टॉक टेकिंग एक्सरसाइज पर भी चर्चा होगी?
बिल्कुल होगी। जैसा कि मैंने बताया कि पेरिस समझौते के बाद हम कहां तक पहुंचे, इसकी समीक्षा साल 2020 में होनी है। स्टॉक टेकिंग एक्सरसाइज समय-समय पर होती है। इसमें यह बताया जाता है कि उत्सर्जन में कमी लाने के लिए किसने कितना किया? कितना हासिल किया और कितना करना बाकी है? हर देश इसके लिए अपने हासिल लक्ष्यों की गणना करके रिपोर्ट बनाता है। 
जलवायु सम्मेलन में आखिर विकसित देशों का मुकाबला भारत कैसे करेगा?
बेसिक देशों के समूह के साथ हमने रणनीति तैयार कर रखी है। इसके अलावा, ब्रिक्स, जी-7, जी-20 समूह और अन्य लाइक माइंडेड देशों की मदद से भी भारत अपने हितों को जोरदार तरीके से उठाएगा। 

उत्तर भारत में प्रदूषण की समस्या इतनी ज्यादा गंभीर क्यों बन गई है?
यदि देश को दो हिस्सों में बांट दें- एक गंगा का मैदान और दूसरा गैर-गंगा क्षेत्र, तो दोनों हिस्सों की स्थितियां अलग-अलग हैं। गंगा के मैदानी इलाके में प्रदूषण के अलावा विपरीत मौसम संबंधी परिस्थितियां भी हैं, जिसके कारण गरमियों और सर्दियों के दिनों में यहां प्रदूषण की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है, जबकि बाकी क्षेत्र में मौसम की जटिलताएं न होने के कारण समस्या सिर्फ प्रदूषण तक  सीमित है। 

कोयला बिजलीघरों से सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलता है, इनसे कैसे निपटेंगे?
हम कई उपाय कर रहे हैं। ज्यादा पुराने कोयला बिजलीघर बंद करने जा रहे हैं। बाकी में प्रदूषण कम करने के लिए नई तकनीक लगाने के मानक जारी किए जा चुके हैं। तीसरे, इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उच्च गुणवत्ता का कोयला इस्तेमाल हो, जिससे प्रदूषण कम से कम हो।


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