April 19, 2024

दिल्ली किसकी है, यह फैसला करना इतना मुश्किल क्यों हैं?

दिल्ली पर नियंत्रण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उसने इस मामले को थोड़ा सुलझाया है और थोड़ा जस का तस बना रहने दिया है. दिल्ली को लेकर उपराज्यपाल के जरिये केंद्र सरकार और यहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जंग लंबे समय से चल रही है. यह लड़ाई मुख्य रूप से दो बिन्दुओं पर है. एक, दिल्ली में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों के ट्रांसफर और पदोन्नति से संबधित अधिकार मुख्यमंत्री के पास हैं या उपराज्यपाल के. और दूसरा, दिल्ली सरकार का एंटी करप्शन ब्यूरो किसके नियंत्रण में है.

इन दोनों में से पहले यानी ट्रांसफर और पोस्टिंग के मसले पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ के दोनों जजों – जस्टिस एके सीकरी और अशोक भूषण – की राय अलग-अलग थी. इसलिए इसे एक बड़ी पीठ के पास सुनवाई के लिए भेज दिया गया है. और दूसरे यानी एसीबी पर नियंत्रण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने इसके केंद्र सरकार के अधीन होने का फैसला दिया है.

दिल्ली को लेकर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की सरकारों के बीच चल रही जंग को अगर आप ठीक से समझना चाहें तो इसके लिए इतिहास में झांकना जरूरी है. आजादी के बाद से दिल्ली के शासन-प्रशासन और उसके तौर-तरीकों में जो बदलाव समय-समय पर हुए हैं, उन्हीं में दिल्ली को लेकर चल रहे वर्तमान विवाद की जड़ें भी छिपी हुई हैं.

आजादी के बाद जो देश की पहली सरकार बनी, उसने देश भर के राज्यों को चार श्रेणियों में बांटा था. दिल्ली को तब ‘सी’ श्रेणी में रखा गया था. इस श्रेणी के राज्यों का मुखिया एक चीफ कमिश्नर होता था. इसके नियमों के अनुसार दिल्ली में 1952 में विधानसभा का भी गठन किया गया था. इस विधानसभा को कानून बनाने और शासन चलाने में चीफ कमिश्नर को सलाह देने का भी अधिकार था. लेकिन यह व्यवस्था ज्यादा समय तक नहीं चली. राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर 1956 में दिल्ली को राज्यों की श्रेणी से हटा दिया गया. इससे दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश बन गई, इसकी विधानसभा समाप्त हो गई और इसके स्थान पर म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (डीएमसी) का गठन कर दिया गया.

कुछ साल बाद इस व्यवस्था में भी बदलाव किये गए. 1966 में ‘दिल्ली प्रशासन कानून – 1966’ लागू कर दिया गया. इसके अंतर्गत दिल्ली में मेट्रोपोलिटन काउंसिल की व्यवस्था की गई और चीफ कमिश्नर के पद को भी समाप्त कर दिया गया. इसकी जगह अब उपराज्यपाल ने ले ली. सात नवम्बर 1966 को दिल्ली का पहला उपराज्यपाल नियुक्त किया गया. नई व्यवस्था में मेट्रोपोलिटन काउंसिल उपराज्यपाल को सिर्फ सलाह दे सकती थी. इसके पास विधायिका वाले अधिकार नहीं थे. इस वजह से दिल्ली में पूर्ण अधिकार प्राप्त विधानसभा की मांग उठने लगी. तकरीबन 20 साल बाद 1987 में भारत सरकार ने इस मांग पर फैसला करने के लिए सरकारिया समिति का गठन किया. इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1991 में 69वां संविधान संशोधन किया गया. आज जो जंग दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच छिड़ी है, वह इसी संविधान संधोधन से जुडी हुई है.

1991 में हुए इस संशोधन से दिल्ली को ‘केंद्र प्रशासित प्रदेश’ के स्थान पर ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया. इसके साथ ही गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी (एनसीटी) ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 के जरिए दिल्ली में विधानसभा के गठन को भी मंजूरी दे दी गई. इस दौरान केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी थी. भाजपा के कई नेताओं ने इस संशोधन का यह कहते हुए विरोध किया था कि इससे दिल्ली को सरकार और मुख्यमंत्री तो मिल जाएंगे लेकिन वे सिर्फ नाम मात्र के ही होंगे. भाजपा चाहती थी कि दिल्ली में भी सरकार और मुख्यमंत्री की व्यवस्था बिलकुल वैसी ही हो जैसी कि अन्य राज्यों में होती है.

लेकिन तत्कालीन सरकार ने भाजपा के इस विरोध को दरकिनार कर दिया. एनसीटी कानून 1993 में लागू हुआ और तभी पहली बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव करवाए गए. इन चुनावों में भाजपा को बहुमत मिला और मदन लाल खुराना दिल्ली की पहली चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री बन गए. इस तरह दिल्ली में विधान सभा का गठन तो हो गया लेकिन उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिले बगैर. भारतीय संविधान के अनुछेद 239 में केंद्र शासित प्रदेशों में ‘प्रशासक’ की व्यवस्था की बात कही गई है. इसे अंडमान-निकोबार, पुडुचेरी और दिल्ली में उपराज्यपाल कहा जाता है.

1991 में हुए संशोधन के बाद संविधान में अनुछेद 239 एए और 239 एबी जोड़ दिए गए थे. अनुच्छेद 239 एए की उपधारा 3 (ए) के अनुसार दिल्ली विधानसभा राज्य सूची या समवर्ती सूची में मौजूद किसी भी विषय पर कानून बना सकती है लेकिन उसे कानून-व्यवस्था, पुलिस और जमीन से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है. साथ ही इस उपधारा में यह भी लिखा है कि दिल्ली विधानसभा उस हद तक ही किसी विषय पर कानून बना सकती है जिस हद तक वह विषय किसी केंद्र प्रशासित राज्य पर लागू होता हो. इस वजह से राज्य सूची के वे मामले भी दिल्ली विधानसभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गए जो केंद्र शासित प्रदेशों पर लागू नहीं होते.

उदाहरण के लिए केंद्र शासित प्रदेशों में अलग से कोई लोक सेवा आयोग नहीं होता. यहां तैनात अधिकारियों का चयन केंद्रीय लोक सेवा आयोग द्वारा ही किया जाता है. इस कारण दिल्ली में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़े कानून बनाना, उनकी पदोन्नति और तबादले करने का अधिकार मुख्यमंत्री से ज्यादा उपराज्यपाल और केन्द्रीय गृह मंत्रालय को है.

संविधान के अनुछेद 239 एए की उपधारा 4 दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को यह अधिकार देती है कि वे अपनी नीतियां एवं कार्यक्रम लागू करवाने के लिए उपराज्यपाल को सलाह दें एवं सहायता प्रदान करें. लेकिन यहां भी उपराज्यपाल दो तरह से मुख्यमंत्री को पछाड़ देते हैं. एक, मुख्यमंत्री सिर्फ उन्हीं मामलों में सलाह दे सकते हैं जिन मामलों में दिल्ली विधान सभा को कानून बनाने का भी अधिकार हो. दूसरा, यदि मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच सहमति नहीं बनती तो इस परिस्थिति में राष्ट्रपति का फैसला ही मान्य होगा. लेकिन जब तक राष्ट्रपति इस पर फैसला लेते हैं तब तक उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि वह, यदि जरूरी समझे तो, अपने विवेक से फैसला ले सकता है.

1991 में पारित हुआ एनसीटी एक्ट दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियों को और भी ज्यादा बढ़ा देता है. इससे उपराज्यपाल को कई विषयों पर अपने विवेक से कार्य करने का अधिकार मिल जाता है. यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल इस कानून की कई धाराओं पर पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं. उनका तर्क है कि यह कानून उपराज्यपाल को जनता द्वारा चुनी गई सरकार पर अनुचित रोक लगाने का अधिकार देता है जो कि असंवैधानिक है. साथ ही केजरीवाल यह भी मांग कर रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा के पास उपराज्यपाल के महाभियोग का भी विकल्प होना चाहिए. वैसे अगर केवल महाभियोग का अधिकार ही विधानसभा के पास होता तो प्रचंड बहुमत वाली केजरीवाल सरकार के खिलाफ जाने की न तो पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग सोच सकते थे और न वर्तमान राज्यपाल अनिल बैजल.

ऐसे में साफ़ है कि अरविंद केजरीवाल का पक्ष इस लड़ाई में केंद्र और उपराज्यपाल के मुकाबले कमजोर है. इस लड़ाई में उनकी जीत तभी हो सकती है जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाए. लेकिन यह फैसला केंद्र की भाजपा सरकार को करना है जो चुनाव से पहले ऐसा करने का वादा करने के बाद अब उसे भूल चुकी है. या फिर देश की सबसे बड़ी अदालत इस मामले में उन्हें राहत दे सकती थी जिसमें इस मामले का आखिरी निपटारा अभी भी होना बाकी है.


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