April 26, 2024

आखिर क्यों बदली-बदली नज़र आ रहीं हैं मायावती

बसपा सुप्रीमो मायावती के तेवर बदले-बदले नज़र आ रहे हैं. यूपी में खुद आगे बढ़कर अखिलेश यादव और सपा के साथ आने की बात छोड़ भी दें तो कभी भी चुनाव पूर्व गठबंधन की पक्षधर नहीं रही मायावती इस बार कर्नाटक और हरियाणा में चुनावों से पहले ही गठबंधन का ऐलान कर चुकी हैं. कांशीराम के वक़्त से ही बसपा राज्यों में उन पार्टियों से गठबंधन करने की पक्षधर थी, जो सरकार बनाने में समर्थ नजर आती थी. कांशीराम का मानना था कि बसपा के सत्ता के साथ रहने का सीधा फायदा एससी/एसटी समाज के लोगों को ही मिलेगा. कुछ जानकार इसे मायावती की नई रणनीति बता रहे हैं तो कुछ सिर्फ राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने की जद्दोजहद करार दे रहे हैं.

कर्नाटक में जेडीएस और हरियाणा में इनेलो
बसपा ने इस बार आगे बढ़कर कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्युलर और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल से गठबंधन किया है. कर्नाटक में बसपा 22 सीटों पर चुनाव भी लड़ रही और इनमें से 7 सीटें ऐसी हैं जिन पर दलित आबादी सबसे ज्यादा है, कर्नाटक में भी कुल जनसंख्या में से 18% दलित आबादी है. उधर हरियाणा में भी आईएनएलडी के सीनियर नेता अभय सिंह चौटाला ने बीते दिनों बसपा के साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन का ऐलान कर दिया है. बता दें कि हरियाणा की आबादी में 21% हिस्सा दलित जातियों का है.

हरियाणा के आलावा मायावती की बातचीत मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में भी चल रही है और मिली जानकारी के मुताबिक कांग्रेस से उसकी बातचीत नहीं भी बनी तो वो क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन कर सकती है. मध्य प्रदेश चुनावों से पहले एक निजी न्यूज़ चैनल के सर्वे में सामने आया है कि पिछले चुनाव में 4 सीटें जीतने वाली बसपा इस बार अपना आंकड़ा 12 तक ले जा सकती है. मायावती की बदली रणनीति का उदाहरण आरजेडी चीफ की ‘बीजेपी भागाओ, देश बचाओ’ रैली के दौरान भी देखने को मिला था. इस रैली के लिए लालू ने मायावती को भी न्योता भेजा था लेकिन उन्होंने ये कहकर साफ़ इनकार कर दिया कि बसपा तब तक किसी पार्टी के साथ स्टेज शेयर नहीं करेगी जब तक 2019 के लिए सीट शेयरिंग या गठबंधन का फ़ॉर्मूला फिक्स न हो जाए.

राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचा रही हैं मायावती
ये सच है कि लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने के बाद से ही बसपा को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खत्म करने का नोटिस दिया जा रहा है. अगर इस बार जरूरत भर की सीटें नहीं मिलीं और दूसरे राज्यों में वोट प्रतिशत नहीं बढ़ा तो बसपा से राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता छिन जाना तय है. मन जा रहा है कि यही वजह है कि मायावती ने बसपा की रणनीति बदली है और यूपी के अलावा दूसरे राज्यों में भी लगातार गठबंधन पर जोर दे रही है. ज़रूरी वोट प्रतिशत हासिल करने के लिए ऐसी पार्टियों से भी हाथ मिलाया जा रहा है जिनकी राज्यों में स्थिति तीसरे या चौथे नंबर पर है.

गौरतलब है कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बनाए रखने के लिए तीन प्रमुख शर्तें हैं. पहली यह कि तीन राज्यों में लोकसभा की कम से कम 2% सीटें मिल जाएं. दूसरी शर्त के मुताबिक लोकसभा या विधानसभा चुनाव में 6% वोट के साथ ही चार लोकसभा सीटों पर जीत जरूरी है. तीसरी शर्त है कि चार या उससे ज्यादा राज्यों में राज्यस्तरीय पार्टी की मान्यता मिल जाए. बसपा फिलहाल वोट प्रतिशत और लोकसभा सीटों के मामले में पिछड़ रही है.

क्या बसपा सच में मुश्किल में है
बसपा के लिए 2019 लोकसभा चुनावों में यूपी में प्रदर्शन सुधारना सबसे बड़ी चुनौती है. बसपा के लिए अभी तक सबसे अच्छा ये रहा है कि बीते दिनों निकाय चुनावों में अलीगढ़ और मेरठ से उसके मेयर चुनकर आए हैं. ऐसा पहली बार हुआ था कि बसपा ने निकाय चुनावों में उम्मीदवार पार्टी सिंबल पर उतारे थे. हालांकि इन्हीं चुनावों में बसपा के करीब 73% उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. साल 2007 के बाद से दोनों विधानसभा चुनावों में बसपा को सीटों और वोट शेयर के मामले में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है. 2009 के आम चुनावों के 6.17% वोट शेयर और 21 सीट जीतने वाली बसपा 2014 में 4.19% वोट शेयर और जीरो सीट के साथ लोकसभा से गायब ही हो गयी. गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में सपा का साथ देने के बावजूद राज्यसभा में भी बसपा को हार का सामना करना पड़ा.

काफी संभल कर चल रहीं हैं मायावती
बसपा सुप्रीमो मायावती ने यूपी की सभी 80 लोकसभा सीटों पर अपने प्रभारी तय करते हुए अपनी लोकसभा की तैयारी शुरू कर दी है. ऐसा भी माना जा रहा है कि कार्यकर्ताओं को मिशन 2019 के लिए अलर्ट रहने और लोकसभा की सीटों की सौदेबाजी के समय लीड लेने की कवायद के तहत यह पहल मानी जा रही है. बसपा में यह परंपरा रही है कि सभी सीटों के प्रभारी ही संभावित उम्मीदवार घोषित किए जाते रहे हैं. ऐसे में आखिरी वक़्त पर सपा से गठबंधन न होने पर या फिर कोई भी आपातकालीन स्थिति आने पर वो 80 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकेगी.
कुछ जानकारों का मानना है कि ये मायावती का यह राजनीतिक दांव भी है, ताकि महागठबंधन बनने पर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दावेदारी की जा सके. बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 80 में से 34 सीटों पर नंबर दो पर रही थी और मायावती इन में से कम सीटों पर ही अपनी दावेदारी छोड़ने के लिए तैयार होगी. मिल रही जानकारी के मुताबिक राज्य सभा चुनाव में हार से भी मायावती खुश नहीं थी. हालांकि मायावती के कैंडिडेट भीमराव अंबेडकर को अखिलेश यादव ने विधान परिषद भेजकर नुकसान की भरपाई करने की कोशिश ज़रूर की थी.

कर्नाटक में अलग और कैराना पर भी सस्पेंस!
यूपी में सपा-बसपा भले ही बीजेपी से निपटने के लिए साथ आने के संकेत दे रहे हैं लेकिन कर्नाटक में दोनों फिलहाल विरोधी खेमे में हैं. सपा भी कर्नाटक में 20 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है जबकि बसपा जेडी-एस के साथ मिलकर 22 सीटों से मैदान में है. अखिलेश और मायावती दोनों ही कर्नाटक में चुनावी रैलियां कर रहे हैं, हालांकि बीजेपी ने इस ‘चुनावी पर्यटन’ बताकर खारिज कर दिया है.

कर्नाटक की बात छोड़ दें तो 2019 लोकसभा चुनावों से पहले यूपी की कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव भी है. 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ और राजनीतिक रूप से खासा दबदबा रखने वाले मुनव्‍वर हसन के परिवार में वोटों के बंटवारे के बीच बीजेपी के हुकुम सिंह ने कैराना लोकसभा सीट जीती थी. अब उनके निधन के बाद यह सीट खाली हुई है. सपा के राष्‍ट्रीय सचिव राजेन्‍द्र चौधरी का कहना है कि पार्टी ने अभी कैराना लोकसभा सीट के लिये बसपा के समर्थन के बारे में कोई फैसला नहीं किया है. अखिलेश यादव एक तरफ समर्थन के लिए बसपा को धन्यवाद तो दे रहे हैं लेकिन मायावती ने इस पर अपने पत्ते नहीं खोले हैं.

बता दें कि बसपा कभी कोई उपचुनाव नहीं लड़ती लेकिन जिस तरह बदले माहौल में मायावती ने अपनी धुर विरोधी रही सपा से हाथ मिलाया है, चुनावी रणनीति भी बदली है ऐसे में वो अपनी ताकत दिखने के लिए उपचुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाए तो इसमें भी कोई ताज्जुब नहीं होगा. गौरतलब है कि कैराना लोकसभा सीट पिछले कई साल से अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है. 1996 में सपा, 1998 में बीजेपी, 1999 और 2004 में राष्ट्रीय लोकदल, 2009 में बसपा और 2014 में बीजेपी का इस पर कब्‍जा रहा है.


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