ये 3 पीएम नहीं पा सके थे संसद में विश्वास मत, गंवाई थी अपनी सरकार
नरेंद्र मोदी सरकार आज लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने जा रही है। बुधवार को तेलुगु देशम पार्टी ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के लिए अर्जी दी थी, जिसे लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने मंजूर कर लिया था। इस समय बीजेपी के पास 273 सांसदों की संख्या है। वहीं, एनडीए की संख्या की बात करें तो यह 312 है।
हालांकि, कांग्रेस ने खुद के पास पर्याप्त नंबर होने का दावा किया है। पार्टी ने लोकसभा में उपस्थित रहने के लिए व्हीप जारी किया है। इस व्हीप में बताया गया है कि पार्टी के सभी सांसदों को 20 जुलाई को सदन में उपस्थित रहना जरूरी है। सदन में 15 साल बाद पहली बार अविश्वास प्रस्ताव आने वाला है। यहां हम आपको तीन प्रधानमंत्रियों के बारे में बता रहे हैं जिन्हें विश्वास मत में हार का सामना करना पड़ा है।
वीपी सिंह (1990)
जनता दल के नेता वीपी सिंह साल 1989 से लेकर 1990 तक प्रधानमंत्री रहे। वे सिर्फ 11 महीने तक ही प्रधानमंत्री पद पर रहे और उसके बाद बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे पर सरकार से अपना समर्थन वापस खींच लिया। इसके बाद 10 नवंबर 1990 को विश्वास मत में हारने के बाद वीपी सिंह ने राष्ट्रपति आर वेंकटरमन को अपना इस्तीफा सौंप दिया। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को 346 के मुकाबले 142 वोट मिले। सदन में वोटिंग के दौरान आठ सांसद अनुपस्थित थे। सरकार को बचाए रखने के लिए वीपी सिंह को 261 वोटों की जरूरत थी।
अटल बिहारी वाजपेयी (1999)
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी तीन बार देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उनकी सरकार सिर्फ 13 दिनों में गिर गई। 28 मई, 1996 को विश्वास मत से पहले ही अटल ने इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। वे 1998 में दूसरी बार देश के पीएम बने। 13 महीने बाद अटल सरकार ने संसद में विश्वास मत पेश किया जिसमें वाजपेयी को एक वोट से हार का सामना करना पड़ा। तीसरी बार 2003 में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया जिसमें उन्होंने जीत हासिल की।
देवगौड़ा (1997)
साल 1996 में चुनाव के बाद जनता दल नेता देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे। एक जून 1996 को कांग्रेस के समर्थन से वे देश के 11 वें प्रधानमंत्री बने। हालांकि, दस महीने बाद ही कांग्रेस ने समर्थन वापस खींच लिया। 11 अप्रैल 1997 को विश्वास मत पेश करने के बाद देवगौड़ा की सरकार गिर गई। सदन में प्रस्ताव के दौरान गौड़ा के समर्थन में केवल 158 वोट ही पड़े थे, जबकि कुल सीटों की संख्या 545 थी।