अभागे हैं अखिलेश, मुख्यमंत्री बनने के बाद से सिर्फ बेवफाइयों भरा रहा सफर
लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त के बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कह रहे हैं कि वह लड़ाई को समझ नहीं पाए. लेकिन 2012 के बाद से वह लगातार जिस तरह पारिवारिक और सियासी रिश्तों को समझ पाने में नाकाम हो रहे हैं, उससे सवाल उठता है कि क्या वह सचुमच लड़ाई को समझ नहीं पा रहे हैं?
अखिलेश यादव भले ही गठबंधन के रिश्ते को अटूट बताते रहे हों, लेकिन उनके साझेदार मौका आते ही अलग राह चुन ले रहे हैं. चुनावी हार के बाद मायावती जो संकेत दे रही हैं, यह उसकी बानगी है. फिलहाल इन बेवफाइयों को सिलसिलेवार देखें तो तस्वीर साफ होती हुई दिखेगी.
2012 का वो समय याद करना चाहिए जब अखिलेश यादव ने अपनी रणनीति की बदौलत उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतने में कामयाबी हासिल की थी. इसमें अक्टबूर 2011 में पूरे प्रदेश में उनकी साइकिल यात्रा का बड़ा योगदान माना जाता है. उस दौरान उनके प्रचार की मशहूर टैग लाइन ‘उम्मीद की साइकिल’ ने व्यावहारिक तौर पर सरल माने वाले अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया. मगर मुख्यमंत्री बनने के बाद राजनीतिक गलियारों से लेकर घर की दीवारों के बीच पारिवारिक रिश्ते भी दरकने लगे.
अखिलेश यादव से करीबी लोगों के अलग होने की कहानी का प्लॉट कोई एक दिन में तैयार नहीं हुआ. संभवतः इसका बैकग्राउंड उसी दिन तैयार हो गया था, जब अमर सिंह ने 2007 में मायावती से विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी की कमान सौंपने की मुलायम सिंह यादव को सलाह दी थी.
मुलायम सिंह ने भी 2012 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद का सपना देख रहे अपने भाई शिवपाल यादव की जगह बेटे को तरजीह दी और अखिलेश यादव सीएम बने. 2017 तक आते-आते परिवार में दरार का दायरा काफी बढ़ चुका था और इसमें मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव भी अखिलेश के खिलाफ खड़े मिले. उस दौरान पारिवारिक और राजनीतिक विरासत को संभालने को लेकर चला सियासी ड्रामा बहरहाल इतिहास बन चुका है.
इधर 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे और माना गया कि 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी लहर चलेगी. इसी आशंका को देखते हुए अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन का फैसला किया, लेकिन कुल 403 सीटों में से वह 356 सीटें गंवा बैठे, और कांग्रेस की राह जुदा हो गई. यह एक झटका भी और एक सबक भी.
बसपा के समर्थन से गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली जीत से उत्साहित अखिलेश यादव ने मायावती की पार्टी के साथ लोकसभा चुनाव 2019 के लिए गठबंधन में चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन इसमें अखिलेश की पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव का अपना रिकॉर्ड भी दोहरा नहीं पाई जबकि बसपा को 10 सीटों पर जीत मिली.
अब जब चुनाव नतीजों को लेकर मंथन का दौर चल रहा है तो मायावती अलग रास्ता अख्तियार करने का संकेत दे रही हैं. उन्होंने विधानसभा की 11 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में उतरने का ऐलान किया है जबकि बसपा इससे पहले उपचुनाव नहीं लड़ती रही है. मायावती के बारे में कहा जाता है कि वह अपना दांव चलकर आगे बढ़ने विश्वास करती हैं. संभवतः विधानसभा की खाली हो रही सभी 11 सीटों के उपचुनाव लड़ने का ऐलान कर उन्होंने यही साबित किया है. लेकिन अखिलेश यादव जिस तरीके से लोकसभा चुनाव में माहौल को समझ नहीं पाए उसी तरह वह राजनीतिक रिश्तों को समझने में पीछे रह जा रहे हैं. इसीलिए कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन्हें सिर्फ बेवफाइयों का सामना करना पड़ रहा है.