September 22, 2024

उत्तराखंड की नदियों से गायब हो रहीं मछलियां, जानें क्या है वजह

महाशीर, स्नो ट्राउट समेत 200 से ज्यादा प्रजातियों को सहेजने वाली कुमाऊं की नदियों और जलस्रोतों में आज मछलियों की संख्या और गुणवत्ता दोनों गिर रही है। भारी खनन और भूस्खलन के साथ अज्ञानता के साथ इनका शिकार करने से मछलियों के भोजन और उसके अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है।

मत्स्य विज्ञानियों के अनुसार, नदियों में मछलियों के होने के मायने हैं कि नदी का पानी स्वच्छ है। लेकिन उत्तराखंड में खनन और भूस्खलन ने नदियों का स्वरूप बिगाड़ दिया है। इससे मछलियों के पलने-बढ़ने की परिस्थितियां विषम हो गई हैं। यही वजह है कि कभी 50 से 100 किलो तक की महाशीर देने वाली इन नदियों में अब पांच से दस किलो की मछली मिल रही है। मतलब साफ है कि उनका भोजन खत्म हो रहा है। उनके छिपने और प्रजनन करने की परिस्थितियां प्रतिकूल हो चुकी है।    

इन वजहों से पैदा हुआ संकट

  • लगातार खनन होने से नदियों की इकोलॉजी या पारिस्थितिकी बिगड़ रही है। इसका सीधा प्रभाव मछली पर पड़ रहा है
  • भूस्खलन के चलते नदियों में गाद अत्यधिक है। जो मछलियों के छिपने और खाने के अड्डों को बर्बाद कर रही हैं
  • करंट, ब्लीचिंग, बम, जहर से मछलियों का शिकार इन्हें पूरी तरह नष्ट कर रहा है
  • नदियों में डाले जा रहे कचरे से पानी में पाया जाने वाला मछलियों का भोजन खत्म हो रहा है।

संरक्षण के लिए ये उपाय जरूरी

  • पहाड़ों में भूस्खलन रोकने के उपाय किये जाएं, भूस्खलन के कारण नदियों में गाद आती है, जो मछलियों के भोजन को समाप्त कर देती है।
  • नदियों में हो रहे लगातार खनन (रिवर माइनिंग) को नियंत्रित किया जाए। 
  • नदियों में चेकडेम बनाए जाएं, जो मछलियों के पलने-बढ़ने को बेहतर माहौल दे सकते हैं।
  • अवैध शिकार (करंट, बारूद आदि) को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं, जाल लगाकर शिकार ही वैज्ञानिक तरीका है। 
  • पर्यावरण और मछलियों को लेकर लोगों में जनजागरूकता अभियान चलाए जाएं। 

ठोस कार्ययोजना में उत्तराखंड फिसड्डी

मत्स्य विशेषज्ञों के अनुसार जितने जलस्रोत हमारे पास हैं, उनमें अगर योजनाबद्ध तरीके से मत्सय पालन किया जाए तो हम अपने साथ-साथ देश को बेहतरीन मछली उपलब्ध करा सकते हैं। लेकिन ठोस कार्ययोजना के अभाव में हमारे पास जो मौजूद था वह भी बर्बाद हो रहा है। पर्वतीय राज्यों में हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम शानदार काम कर रहे हैं। उत्तराखंड गिनती में नहीं है। 

राज्य में ये प्रमुख प्रजातियां

उत्तराखंड के जितने भी जलस्रोत हैं उनमें महाशीर, स्नो ट्राउट, रेनबो ट्राउट(असेला), रौला, पत्थर चटा समेत 258 प्रजातियां हैं। 

तीन विभागों को साथ आने की जरूरत 

मत्स्य विशेषज्ञ  डॉ. आरएस पतयाल के अनुसार जिन क्षेत्रों में सघन वन हैं, वहां नदियां साफ हैं और इनमें रहने वाले जीव-जन्तु बेहतर स्थित में हैं। उनकी इकोलॉजी अच्छी है। यह इकोलॉजी सभी जगह तब मजबूत हो सकती है जब मत्स्य विभाग, वन विभाग और सिंचाई विभाग मिलकर काम करें।

यह भी जानें

मछली शाकाहारी और मांसाहारी होती हैं। शाकाहारी मछली पत्थरों में चिपकी काई, छोटे पौधे आदि खाती है जबकि मांसाहारी मछलियां छोटे कीड़े छोटी मछली आदि का शिकार करती हैं। 

इन नदियों में ज्यादा नुकसान

मत्स्य वैज्ञानिकों के अनुसार कभी चम्पावत में लदिया नदी में काफी मात्रा में महाशीर मिलती थी। लेकिन उस क्षेत्र में लगातार निर्माण कार्य और भूस्खलन के चलते अब महाशीर काफी कम हो गई है। इसके अलावा सरयू, कोसी, गौला, गढ़वाल की नयार नदी भी प्रभावित हो रही हैं। इससे महाशीर, असेला, गारा, गूंज, बरेलियस हैं, बहुत कम मात्रा में मिल रही हैं, जो मिल भी रही हैं तो यह पूरी विकसित यानी प्रौढ़ अवस्था में नहीं हैं। 

मछलियों की संख्या बढ़ाने के लिए पोखरों और नदियों में मछलियों के बीज डाले जा रहे हैं। साथ ही जागरूकता के कार्यक्रम लिए जाते हैं। मछलियों को हो रहे खतरे के कारणों की जानकारी भी हम सरकार तक पहुंचा रहे हैं। – डॉ. आरएस पतयाल, प्रमुख वैज्ञानिक, राष्ट्रीय शीतलजल मत्स्य अनुसंधान निदेशालय, भीमताल

उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों के जलस्रोतों की इकोलॉजी लगातार खराब हो रही है। इससे नदियों और मछलियों की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इससे मछलियों की संख्या के साथ गुणवत्ता भी गिर रही है। – डॉ. आईजे सिंह, डीन, मत्स्य महाविद्यालय, पंतनगर विश्वविद्यालय


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