पीएम-इन वेटिंग से प्रेसिडेंट-इन वेटिंग तक

अगले महीने होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए बीजेपी ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को एनडीए की ओर से उमीदवार चुना है.
इसके साथ ही लालकृष्ण आडवाणी के लिए कोई भी बड़े पद को पाने का आखिरी मौक़ा भी हाथ से निकल गया.
भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि जनसंघ और भाजपा के इतिहास में लालकृष्ण आडवाणी ‘लिविंग लीजेंड’ माने जाते हैं.
हैं- लाल कृष्ण आडवाणी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. दोनों हस्तियों ने पार्टी के विकास में सबसे अहम भूमिका निभाई है.
आज की पीढ़ी को शायद याद नहीं होगा कि किस तरह अडवाणी की एक ज़माने में तूती बोलती थी. उनकी लगभग पूजा होती थी और आरती उतारी जाती थी.
बाबरी मस्जिद अभी गिरी नहीं थी. आडवाणी ने जब रथ यात्रा शुरू की थी तो वो हिंदुत्व और भाजपा दोनों को प्रमोट कर रहे थे.

प्रधानमंत्री पद के दावेदार
स्वतंत्र भारत में धर्म के नाम पर ऐसी सियासी रैलियां इस से पहले कभी नहीं निकाली गई थीं. नतीजा ये हुआ कि कुछ सालों में भाजपा की सीटें संसद में दो से 182 हो गईं. पार्टी अपने गढ़ उत्तर भारत से दूसरे प्रांतों में फैलने लगी.
बनियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा जाटों को भी स्वीकार्य होने लगी. पार्टी की लोकप्रियता बढ़ी. लेकिन जब पार्टी केंद्र में आई तो आडवाणी की जगह अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.
आडवाणी उस समय विपक्ष और सहयोगी पार्टियों के बीच काफी विवादास्पद नेता माने जाते थे और गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण वो प्रधानमंत्री बनने से वंचित रहे.
पिछले आम चुनाव से पहले जब पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की बात आई तो उन्होंने मोदी का ज़बरदस्त विरोध किया.
तन्हा आडवाणी
एक बार फिर से उनकी हार हुई और मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. इतिहास गवाह है कि इस फैसले ने पार्टी को एक नई जान दी, एक नया जोश दिया और एक नई सोच दी. आज पार्टी आडवाणी के ज़माने से कहीं आगे निकल चुकी है.
ज़ाहिर है नरेंद्र मोदी की कामयाबी ने आडवाणी को पार्टी में तन्हा कर दिया. आज भी वो तन्हा ही हैं. खुद आडवाणी ने न कभी अपनी पार्टी की तरफ़ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने की ख्वाहिश जताई और न ही कोई संकेत दिए. भले ही उनके समर्थक ऐसा कहते रहे हों.
खास तौर से कुछ महीने पहले जब बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के आरोपों की सुनवाई करते वक्त अदालत ने ये फैसला दिया कि उन्हें क्रिमिनल केस का सामना करना ही होगा, तो उनके ज्यादातर समर्थक समझ गए थे कि अब आडवाणी का राष्ट्रपति बनना असंभव है.

शत्रुघ्न सिन्हा का ट्वीट
लेकिन उनके अधिकतर समर्थक और प्रशंसक ज़रूर आशा कर रहे थे कि पार्टी के विकास में उनके योगदान को देखते हुए पार्टी के मौजूदा कर्ताधर्ता उनके ध्यान रखेंगे.
सोमवार को रामनाथ कोविंद का नाम सामने आने के दो दिन बाद पार्टी के नेता और बॉलीवुड अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने ट्वीट करके आडवाणी को उम्मीदवार न बनाए जाने पर खेद प्रकट किया.
उनके कैडिडेट आडवाणी ही थे. उनके समर्थन में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी बयान दिया है.
लोग कह रहे हैं कि आडवणी के हाथ से बड़ा पद पाने का आखिरी मौक़ा निकल चुका है.
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कौशल के अनुसार लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार न बनाया जाना उनके लिए अवसर खोने वाली कोई बात नहीं है.

90 की उम्र
प्रदीप कौशल के विचार में- “आडवाणी जी पार्टी की सत्ता में हाशिये पर काफ़ी पहले आ चुके थे. उम्र उनका साथ नहीं दे रही. ये अवसर तो उनके लिए उसी दिन समाप्त हो गया था जब उनकी उम्र 90 के क़रीब हो गई. अभी तक भारतीय इतिहास में 90 साल की उम्र में कोई राष्ट्रपति नहीं चुना गया है.”
अडवाणी इस साल नवंबर में 90 साल के हो जाएंगे. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि आडवाणी को अफ़सोस नहीं होना चाहिए. उन्हें जितना मिलना चाहिए था, उतना मिला. वाजपेयी ने उन्हें उपप्रधानमंत्री बनाया जिसकी परम्परा नहीं थी.
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कौशल कहते हैं कि किसी भी जीवित नेता की श्रद्धांजलि लिखना बेवकूफी होगी. वो नरसिम्हा राव की मिसाल देते हुए कहते हैं कि वो सियासत से रिटायर होकर हैदराबाद अपने घर लौटने की तयारी कर रहे थे जब उन्हें प्रधानमंत्री पद संभालने का निमंत्रण मिला.

वो कहते हैं, “राजनीती में कुछ पता नहीं होता. हालांकि भाजपा का इस समय जो समीकरण है उस में किसी तरह का परिवर्तन नहीं दिखता. लेकिन जब तक जीवन है, क्या संभावनाएं आ सकती हैं, आप कुछ नहीं कह सकते.”
“आडवाणी को नज़रअंदाज़ करना या किसी और को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना एक राजनैतिक निर्णय है. अगर उन्हें उमीदवार बनाया जाता तो हैरानी की बात होती.”