मेजर ध्यानचंद की विरासत नहीं संभाल पाया देश
वक्त अगर किसी चीज को लौटाना चाहे तो बिलाशक भारतीय खेल जगत दद्दा यानि मेजर ध्यानचंद को मांगना चाहेगा। उनसा न कोई हुआ और न हो सकता है भविष्य में। खेल से खिलाड़ी की पहचान बनती है लेकिन ध्यानचंद तो हॉकी का आइना बन गए। उनके खेल को देखने वाला उनके सम्मोहन से बच नहीं पाता था। एडोल्फ हिटलर उनके खेल से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ध्यानचंद को जर्मनी से खेलने का न्योता दे दिया। क्रिकेट की दुनिया जिस डॉन ब्रैडमैन की कायल है वो 1935 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर गए ध्यानचंद से एडिलेड में मिले तो उनसे कहा था, “आप उस रफ्तार से गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज रन बनाते हैं।” बॉक्सिंग को मोहम्मद अली, क्रिकेट को सर डॉन ब्रैडमैन और फुटबॉल को पेले पर नाज है तो हॉकी और हिंदुस्तान को ध्यानचंद पर गर्व है। इसीलिए उनके जन्मदिन 29 अगस्त को खेल दिवस के रूप में मनाने की परंपरा रही है।
लेकिन अपनी स्टिक से कभी दुनिया भर को अपने सम्मोहन में बांधने वाले ध्यानचंद के आज बस किस्से भर हैं। न तो भारतीय हॉकी टीम उस विरासत को संभाल पाई, न भारतीय खेल के कर्ता-धर्ता उस मजबूत नींव पर किसी बुलंद इमारत की सोच पाए। हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा हासिल है मगर हर बार की हार से इस दर्जे का ही मजाक बनता है। कहा जाता है कि हॉकी गरीब खेल जरूर है लेकिन यह गरीबों का खेल नहीं रहा। एक औसत हॉकी स्टिक हजार रुपए से कम में नहीं आती। गेंद के लिए भी हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। हॉलैंड जैसे छोटे देश में जहां 450 एस्ट्रो टर्फ हैं वहीं एक करोड़ के हिंदुस्तान में यह संख्या दर्जन का आंकड़ा पार नहीं कर सकी। ऐसे में चैंपियन पैदा हों तो कैसे हों?
मेजर ध्यानचंद को 1956 में पद्मभूषण से भी नवाजा गया था। शुक्र है कि उनके जन्म दिवस को खेल दिवस का दर्जा भी दिया गया। इसी दिन खेल रत्न और अर्जुन पुरस्कार देने की परंपरा ध्यानचंद की याद दिला जाती है. ध्यानचंद सही मायनों में देशरत्न थे और हैं।