November 21, 2024

सुषमा ना तो मोदी है ना ही योगी

punya prasoon 20180841521

सुषमा स्वराज ना तो  नरेन्द्र मोदी की तरह आरएसएस से निकली है और ना ही योगी आदित्यनाथ की तरह हिन्दु महासभा से । सुषमा स्वराज ने राजनीति में कदम जयप्रकाश नारायण के कहने पर रखा था और राजनीतिक तौर पर संयोग से पहला केस भी अपने पति स्वराज के साथ मिलकर बडौदा डायनामाईट कांड का लडा था । जो कि जार्ज फर्नाडिस पर इमरजेन्सी के वक्त लगाया गया था । और करीब पन्द्रह बरस पहले लेखक को दिये एक इंटरव्यू में सुषमा स्वराज ने राजनीति में हो रहे बदलाव को लेकर टिप्पणी की थी , जेपी ने मेरी साडी के पल्लू के छोर में गांठ बांध कर कहा कि राजनीति इमानदारी से होती है । और तभी मैने मन में गाठं बांध ली इमानदारी नहीं छोडूगी । लेकिन मौदूदा वक्त में जब राजनीति ईमानदारी की पटरी से उतर चुकी है ।

छल-कपट और जुमले की सियासत तले सत्ता की लगाम थामने की बैचेनी हर दिल में समायी हुई है तब सुषमा स्वराज का पांच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को ना लडने का एलान उनकी इमानदारी को परोसता है या फिर आने वाले वक्त से पहले की आहट को समझने की काबिलियत को दर्शाता है । सवाल कई हो सकते है कि आखिर छत्तिसगढ में जिस दिन वोटिंग हो रही थी उसी दिन सुषमा स्वराज ने चुनाव ना लडने का एलान क्यो किया । जब मध्यप्रदेश में हफ्ते भर बाद ही वोटिंग होनी ही , तो क्या तब तक सुषमा रुक नहीं सकती थी । या फिर जिस रास्ते मोदी सत्ता या बीजेपी निकल पडी है उसमें बीजेपी या सरकार के किसी भी कद्दावर नेता की जरुरत किसे है । या उसकी उपयोगिता ही कितनी है । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि मोदी सत्ता के दौर में जनता से लेकर नौकशाही और प्रोफेशनल्स से लेकर संवैधानिक संस्थानो तक के भीतर ये सवाल है कि उनकी उपयोगिता क्या है । और इस कैनवास को राजनीतिक तौर पर मथेगें तो जिस अंदाज में बीजेपी अध्यक्ष चुनावी बिसात बिछाते है और जिस अंदाज में प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक सभाये चुनावी जीत दिला देती है उसमें कार्यकत्ता या राजनीतिक कैडर की भी कितनी उपयोगिता है ये भी सवाल है । यानी सिर्फ आडवाणी या जोशी ही नहीं बल्कि सुषमा स्वराज और राजनाथ सरीखे मंत्रियो को भी लग सकता है कि उनकी उपयोगिता है कहां । और ध्यान दें तो जिनका महत्व मोदी सरकार के भीतर है उनमें अरुण जेटली चुनाव जीत नहीं पाते है । पियूष गोयल , धर्मेन्द्र प्रधान , निर्माला सितारमण , राज्यवर्धन राठौर का कौन सा क्षेत्र है जहा से उनकी राजनीतिक जमीन को समझा जाये । और कैबिनेट मंत्रियो की पूरी कतार है जिसमें मोदी के दरबार में जिनका महत्व है अगर उनसे उनका मंत्रालय ले लिया जाये तो नार्थ-साउथ ब्लाक में घुमते इन नेताओ के साथ कोई सेल्फी लेने भी ना आये । और इस कडी में राजनीतिक तौर पर नागपुर से पहचान बनाये नीतिन गडकरी कद्दवर जरुर है लेकिन ये भी नागपुर शहर ने ही देखा है कि 2014 में कैसे मंच पर गडकरी को अनदेखा कर देवेन्द्र फडनवीस को प्रधानमंत्री मोदी तरजीह देते है ।

सुषमा स्वराज को हिन्दुवादी ट्रोल कराने लगते

तो ऐसे हर कोई सोच सकता है कि जब बीजेपी का मतलब अमित शाह-नरेन्द्र मोदी है और सरकार का मतलब नरेन्द्र मोदी-अरुण जेटली है तो फिर वाकई  सुषमा स्वराज चुनाव किसलिये चुनाव लडे । फिर जिस विदिशा की चिंता सुषमा स्वराज ध्यान ना देने के बाबत कर रही है उस विदिसा में अगर सुषमा वाकी विकास को कोई झंडा गाड ही देती तो क्या उन्हे इसकी इजाजत भी होती ही वह मध्यप्रदेश में जाकर बताये कि उनका लोकसभा क्षेत्र किसी भी लोकतसभा क्षेत्र से ज्यादा बेहतर हो चला है । ऐसा कहती तो बनारस बीच में आ खडा होता । काशी में बहती मां गंगा की निर्मलता-अविरला से लेकर क्वेटो तक पर सवाल खडा होते । और होता कुछ नहीं सिर्फ सुषमा स्वराज ही निसाने पर आ जाती । डिजिटल इंडिया के दौर में कहे तो सुषमा स्वराज को हिन्दुवादी ट्रोल कराने लगते । और झटके में भक्त मंत्री से ज्यादा ताकतवर कैसे हो जाते है ये देश भी देख चुका है और सुषमा स्वराज को भी इसका एहसास है । इसी कडी में  यूपी के कद्दावर राजपूत नेता के तौर पर भी पहचान पाये राजनाथ सिह भी चुनाव लडकर क्या कर लेगें । क्योकि योगी भी राजपूत है और मौके बे मौके पर योगी को राजनाथ से ज्यादा तरजीह कैसे किस रुप में दी जाये जिससे राजनाथ सरीखे कद्दावर नेता की भी मिट्टी पलीद होती रहे ये भी कहा किससे छुपा है । फिर 2014 में तो यूपी के ज्यादातर सीटो पर किसे खडे किया जाये उस वक्त के बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ की ही चली थी । ये अलग बात है कि मोदी ने हालात को ही कुछ इस तरह पटकनी दी कि राजनाथ सिंह भी खामोश हो गये । लेकिन 2019 का सच तो यही होगा राजनाथ ही चुनाव किस सीट से लडे इसे भी मोदी-शाह की जोडी तय करेगी । और जो हालात बन रहे है उसमें 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के  बहुमत से दूर रहने के बावजूद कोई मोदी माइनस बीजेपी की ना सोचे, इसलिये टिकट भी मोदी-शाह अपने करीबियो को ही देगें जो बीजेपी की हार के बाद भी नारे हर हर मोदी ….घर घर शाह के लगाते रहे ।

2014 से 2018 के हालात कितने बदल चुके है

और यही वह बारिक लकीर है जिसपर बीजेपी के पहचान पाये समझदार-कद्दावर नेताओ को भी चलना है और बिना पहचान वाले नेताओ को साथ खडा कर पहचान देते हुये सत्ता-पार्टी चलाने वाले नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को भी चलना है ।  क्योकि अभी जिन पांच राज्यो में चुनाव हो रहे है उसमें सभी की नजर बीजेपी शासित तीन राज्य राजस्थान , मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ पर ही है । और अमितशाह की बिसात पर मोदी की चुनावी रैली क्या गुल खिलायेगी ये तो दूर की गोटी है लेकिन 2014 से 2018 के हालात कितने बदल चुके है ये चुनाव प्रचार को देखने -सुनने आती भीड की प्रतिक्रया से समझा जा सकता है । 2014 में मोदी के कंघे पर कोई सियासी बोझ नहीं था । लेकिन 2018 में हालात बदल गये है । किसान का कर्ज -बेरोजगारी-नोटबंदी- राफेल का बोझ उठाये प्रधानमंत्री जहा भी जाते है वहा 15 बरस से सत्ता में रहे रमन सिंह या तीन पारी खेल चुके शिवराजसिंह चौहाण के कामकाज छोटे पड जाते है । यानी राज्य की  एंटी इनकबेसी पर  प्रधानमंत्री मोदी की एंटीइनकंबेसी भारी पड रही है । यानी अगर इस तिकडी राज्य को बीजेपी गंवा देती है तो फिर कल्पना किजिये 12 दिसबंर के बाद क्या होगा । सवाल काग्रेस का नहीं सवाल मोदी और अमित शाह की सत्ता का है । वहा क्या होगा । बीजेपी के भीतर क्या होगा । सत्ता तले संघ के विस्तार की आगोश में कोया संघ क्या करवट लेगा ।ये सारे सवाल है , लेकिन 12 दिसबंर के बाद बीजेपी के भीतर की कोई भी हलचल इंतजार कर कदम उठाने वाली मानी जायेगी । यानी तब राजनाथ हो या जोशी या आडवाणी कदम कुछ भी उठाये या सलीके से हालात को समझाये मगर तब हर किसी को याद सुषमा स्वराज ही आयेगी । क्योकि इमानदारी राजनीति के आगे छल-कपट या जुमले ज्यादा दिन नहीं टिकते ।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *