EXCLUSIVE: 2013 के शासनादेश पर कुण्डली मार कर क्यों बैठा है शिक्षा विभाग, सरकार घाटे में तो किसे पहुँच रहा फायदा ?

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उत्तराखण्ड शिक्षा विभाग इतना भारी भरकम विभाग है कि यहाँ व्यवस्था ही शिक्षा पर भारी पड़ रही है। एक महानिदेशालय, तीन निदेशालय, दोनों  मण्डलों में कुल चार अपर निदेशक, प्रत्येक जनपद में पाँच-पाँच अधिकारियों के कार्यालय क्रमशः मुख्य शिक्षा अधिकारी, जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक, जिला शिक्षा अधिकारी बेसिक, खण्ड शिक्षा अधिकारी, उप शिक्षा अधिकारी शिक्षा विभाग का ऐसा ढाँचा देश में किसी अन्य प्रदेश में नहीं है।

इसके अलावा समग्र शिक्षा अभियान, राज्य अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद तथा तेरह जनपदों में जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान हैं। इतने विशालकाय ढाँचे के अस्तित्व में होने के बावजूद शिक्षा विभाग के अधिकारियों को लगता है कि उनकी पदोन्नति के लिए संभवतः ये पद कम पड़ जायेंगे इसलिए जिन पदों को 27 जून 2013 के शासनादेश के अन्तर्गत समाप्त कर दिया गया है उन पदों को पुनर्जीवित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया जाए। इसीलिए 2013 के शिक्षक-शिक्षा संबंधी शासनादेश की नियमावली आज तक इन अधिकारियों ने नहीं बनने दी है।

समाचार पोर्ट दस्तावेज ने कुछ दिन पूर्व भी इस संबंध में एक समाचार प्रकाशित किया था। जिसमें बताया गया था कि किस प्रकार विभाग अपने फायदे के लिए शासनादेश पर कुंडली मार कर बैठा है।

इस बात की उम्मीद भी न के बराबर ही है कि विभाग कभी 27 जून 2013 के शासनादेश की नियमावली शासन को देगा बल्कि इसके उलट इस शासनादेश में संशोधन करने की फिराक में 2013 से ही आतुर है, इसीलिए जब-जब शासन द्वारा 2013 के इस शासनादेश को लागू करने के लिए विभाग से नियमावली माँगी विभाग द्वारा 2013 के शासनादेश में संशोधन करने के लिए नया ढाँचा भेज दिया। सरकार के स्तर से भी शिक्षा को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है, जिससे अधिकारियों का दुस्साहस दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है।

अरबों रूपया शिक्षा विभाग प्रत्येक वर्ष डकार जाता है लेकिन शिक्षा के गिरते स्तर की जिम्मेदारी लेने के लिए विभाग में कोई नहीं है। शिक्षा में गुणवत्ता सुधार के नाम पर कार्यक्रम केवल मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री या सचिव से उदघाटन के उद्देश्य से किये जाते हैं, उसके बाद उनकी सुध लेने वाला विभाग में कोई नहीं होता, इनमें आधे से ज्यादा कार्यक्रम तो ऐसे होते हैं जो स्कूलों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन, दीक्षा, वर्चुअल कक्षाएं, आनन्दम पाठ्यचर्या, डाउट क्लीयरिंग डे जैसे कार्यक्रम इसके कुछ उदाहरण हैं।

विभागीय अधिकारियों की मिली भगत की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में अधिकारियों के दो संवर्गों का गठन करवाया गया – अकादमिक और प्रशासनिक, लेकिन आज सभी अकादमिक संस्थानों में नियमविरूद्ध प्रशासनिक अधिकारी बैठे है जबकि अकादमिक अधिकारियों के लिए प्रधानाचार्य से आगे के रास्ते बन्द कर दिये गये हैं। यदि ऐसा ही चाहिए था तो दो संवर्गों के गठन की आवश्यकता ही क्या थी और यदि दो संवर्ग बना ही दिये थे तो अकादमिक संस्थानों में अकादमिक अधिकारियों की पदस्थापना की जानी चाहिए थी। इसलिए ऐसे परिदृश्य में जब तक सरकार अफसरशाही के चंगुल से मुक्त नहीं होगी तब तक 2013 के इस शासनादेश की नियमावली नहीं बन सकेगी और न ही ये लागू हो सकेगा।

जागो सरकार अधिकारियों के ऐसे रवैये से प्रदेश को आर्थिक हानि तो हो ही रही है साथ ही शिक्षा को भी भारी नुकसान हो रहा है। आखिर क्यों शिक्षा का स्तर नहीं सुधर पा रहा है ? क्यों सरकार द्वारा चलाये जा रहे गुणवत्ता सुधार के कार्यक्रमों में वो धार नहीं है जिसकी आवश्यकता है़ ?

शेष अगले भाग में…