September 22, 2024

यूपी चुनाव 2022: क्या कहती है प्रदेश की सवर्ण पॉलिटिक्स?

     विकास शिशौदिया 

 

यूपी में तीसरे नंबर पर आबादी के हिसाब से सवर्णों है (करीब 23%) . सवर्ण यानी ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार, कुछ बनिया, आदि. इनमें भी सबसे ज्यादा ब्राह्मण (9-11 फीसदी), फिर राजपूत (7-8%), कायस्थ (करीब 2.25%) और अन्य अगड़ी जातियां (करीब 2.75%) हैं.

एक समय था जब उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व था. साल 1990 के पहले तक यूपी को 8 ब्राह्मण और 3 राजपूत मुख्यमंत्री मिले थे. दोनों जातियों की संख्या भले की कम थी, लेकिन दबदबा हमेशा से बना रहा. माना जाता है कि ब्राह्मण वर्ग हमेशा ही सत्ता के करीब रहना चाहता है और राजपूत की विचारधारा भी राजनीति को लेकर सॉलिड है. लेकिन उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों के आंकड़ों देखें, तो पिछले 3 दशक से इन जातियों का प्रभाव कम होता गया .

हालांकि, 2022 विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर ब्राह्मणों की बात उठी है. सत्ता में आने के लिए पार्टियां फिर ब्राह्मणों को रिझाना की कोशिश कर रही हैं और अब फिर ये उभर कर आ रहे हैं. बात यह भी गलत नहीं होगी, अगर कहा जाए कि जो ब्राह्मण पहले सत्ता पलट सकते थे अब महज एक वोट बैंक बनकर रह गए हैं.

बात करें ठाकुरों की तो यूपी में भले ही राजपूतों की संख्या ब्राह्मणों से कम रही हो, लेकिन वर्चस्व बराबर का रहा है. 1990 के पहले यूपी को 3 राजपूत सीएम मिले थे. 1990 के बाद भी 2 राजपूत सीएम ने प्रदेश की कमान संभाली है. हालांकि, बाद में बस भाजपा में ही इनका दबदबा देखने को मिला.

अगर आपने ध्यान दिया हो, तो मैंने यूपी की राजनीति को दो भाग में बांटा है- 1990 के पहले और 1990 के बाद. ऐसा क्यों? दरअसल, इस दौरान एक ऐसी रिपोर्ट आई, जिसने सत्ता की कमान ब्राह्मणों और राजपूतों के हाथ से लेकर दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के हाथ में दे दी. यह थी मंडल कमीशन रिपोर्ट. इसे सामाजिक इतिहास में ‘वॉटरशेड मोमेंट’ भी कहा जाता है. यह एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसका अर्थ है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू हुआ हो.

माना जाता है कि लोकतंत्र संख्याबल का खेल है. मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने भी यह बात साबित कर दी थी. 1980 में आई यह रिपोर्ट, 1990 के करीब लागू हुई थी. प्रदेश में ओबीसी की संख्या 40%, तो दलितों की लगभग 24% है. ऐसे में इस रिपोर्ट के आने के बाद यूपी की राजनीति पलट गई.

क्या अभी भी राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व कायम है?

आंकड़ों की बात करें तो लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ही ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ा है और ब्राह्मणओं के प्रभाव में कमी दिखी है. साल 1984 में लोकसभा के करीब 20% सांसद ब्राह्मण थे. 20 साल के अंदर, साल 2014 में ये घटकर 8.27 फीसदी रह गए. वहीं, यूपी में आज तक 5 राजपूत सीएम बने, लेकिन (अभी तक योगी आदित्यनाथ के अलावा) कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.

अगर हम सवर्णों की बात करें तो किसी भी राजनीति में विचारवान नेतृत्व (Opinion Leaders) का बड़ा रोल होता है. जाहिर है कि हमारे समाज में ब्राह्मण या अन्य सवर्ण जातियां शीर्ष पर रही हैं, तो ऐसे में ओपिनियन लीडर्स भी इन्हीं जातियों के बने. अब यह इस पावर का इस्तेमाल कर सकते हैं समाज की राय बनाने या बिगाड़ने में. इसके चलते यह ज्यादा मजबूत माने जाते हैं. हालांकि, आंकड़ों में ये कम हैं, लेकिन माइंडसेट क्रिएट करने में बड़ा महत्व रखते हैं. यही कारण है कि सभी पार्टियां इन्हें लुभाने की कोशिश करती हैं.

वहीं, दूसरा फैक्टर यह है कि सामाजिक तौर पर शीर्ष होने के साथ-साथ यह जातियां आर्थिक रूप से भी मजबूत हैं. ऐसे में समाज इन्हें हर तौर पर अच्छी नजर से देखता है. यह भी कारण है कि सवर्ण जातियां सत्ता बनाने में महत्व रखती हैं.

यूपी में ‘ब्राह्मण बनाम राजपूत’ राजनीति

ब्राह्मण बनाम राजपूत की राजनीति कभी चुनावी क्षेत्र में देखने को नहीं मिली है. ये सामाजिक व्यवस्था में देखने को जरूर मिला है, लेकिन राजनीति में इसका खास असर नहीं दिखता.  ये जातियां ज्यादातर एक साथ ही चलती हैं. यानी देखा जाता है कि बहुमत में एक पार्टी को ही वोट करती हैं. ऐसे में वोट पर्सेंट में दोनों एक ही तरफ जाती हैं. मतदान में ब्राह्मण ज्यादा प्रभावी हैं और इंफ्ल्यूएंस करने में ब्राह्मण और राजपूत बराबर हैं.

यूपी में फिर जरूरी हुए ब्राह्मण ?

बताया जाता है कि मंडल रिपोर्ट के बाद ब्राह्मण बैक एंड में जरूर आ गए थे लेकिन 1995 का गेस्ट हाउस कांड के बाद दलित-ओबीसी राजनीतिक पावर एक दूसरे की दुश्मन हो गईं. यानी सपा और बसपा अब सीधी आंख एक दूसरे को नहीं देखते थे. इसी दुश्मनी का फायदा मिला ब्राह्मण वोट बैंक को. कांग्रेस के कमजोर पड़ते समय ब्राह्मण बीजेपी में जगह तलाशने लगा, लेकिन यूपी बीजेपी में भी ठाकुर-बनिया राजनीति चल रही थी. लेकिन, ब्राह्मण कभी भी पीछे रहना नहीं चाहता था. साल 2007 का चुनाव आया तो केवल 17% ब्राह्मणों ने मायावती को वोट दिया. इसमें भी ज्यादातर वोट वहीं मिले, जहां बसपा के पास ब्राह्मण प्रतियाशी थे.

यूपी में चारों पार्टियों के पास सवर्ण जातियों के बड़े नेता कौन हैं?

कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा, वाराणसी के त्रिपाठी परिवार का अच्छा वर्चस्व रहा है. इनमें रमापति त्रिपाठी आते हैं. हालांकि, 2022 की दृष्टि से कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है. प्रमोद तिवारी भी दिग्गज नेताओं में आते हैं, लेकिन कांग्रेस ने कभी उन्हें प्रमोट नहीं किया, आगे नहीं बढ़ाया.

भाजपा में योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह, रीता बहुगुणा जोशी, कलराज मिश्र, आदि नेता हैं. हालांकि, कलराज मिश्र अब एक्टिव नहीं हैं. लेकिन उनका प्रभाव आज भी कायम है.

बसपा के पास अभी सतीश चंद्र मिश्र हैं. साथ ही पार्टी उनके ब्राह्मण सम्मेलन कर भी उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही है.

सपा के पास ठाकुर नेताओं में पहले अमर सिंह का बड़ा कद हुआ करता था. बुंदेलखंड के भी कुछ ठाकुर नेता जो शुरुआत से मुलायम सिंह से जुड़े थे. राजा भैया भी सैद्धांतिक रूप से सपा के साथ थे, लेकिन वैचारिक रूप से नहीं. ऐसे में सपा के पास भी कोई बड़ा कैंडिडेट नहीं दिखता है.

 


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