शिक्षा विभागः हाकिम के आंख नहीं होतीं, कान होते हैं!
देहरादून। बड़े बुर्जुग कह गये है कि ‘हाकिम के आंख नहीं होती है, कान होते है।’ अर्थात् हाकिम केवल सुनी हुई बात मान लेते हैं, स्वयं देख कर सत्यापित नहीं करते। बड़ों की गढ़ी ये कहावत इस वक्त पूरी तरह प्रदेश के शिक्षा विभाग के जिम्मेदारों पर लागू होती है।
मीडिया में खबर है कि शिक्षा विभाग के ‘अफसरों ने किताबें बांटने को लेकर बड़ा झूठ बोला है’। तमाम दावों के बावजूद भी शिक्षा विभाग के जिम्मेदार प्रदेश के सरकारी स्कूल के छात्र-छात्राओं को पाठ्यपुस्तकें वितरित नहीं कर सके हैं।
पिछले दो महीनों से सरकारी स्कूलों के छात्र-छात्राएं बिना किताबों के पढ़ाई कर रहे है। मजेदार बात तो ये है कि विभाग ने सरकारी स्कूलों में बिना किताबों के मासिक परीक्षा भी सम्पन्न करा दी। स्कूलों में गर्मियों की छूट्टियां पड़ चुकी है। पांच जुलाई को ही स्कूल खुलेंगे। साफ है कि पांच जुलाई तक छात्र-छात्राओं को पाठ्य-पुस्तकें नहीं दी जा सकेंगी।
स्कूली बच्चों को निशुल्क पाठ्यपुस्तकों के वितरण को लेकर विभाग में बैठे जिम्मेदारों ने शुरू से ही ‘गाल बजाने’ और ‘कागज काले’ करने के सिवा शायद ही कुछ किया हो। यदि कुछ किया होता तो स्कूली बच्चों के हाथों में किताबें होती और उन्हें बिना किताबों के मासिक परीक्षा नहीं देनी पड़ती। हां बिना किताबों के परीक्षा कराने का ‘कीर्तिमान’ विभाग के जिम्मेदारों ने अपने नाम जरूर करा लिया है।
खोखले निकले दावे
सरकार ने पिछले साल तय किया था कि स्कूलों बच्चों को किताबे छपवाकर दी जाएंगी। पिछले साल ही किताबे छपवाने के लिए टेंडर करने की अनुमति दे दी गई थी। शिक्षा विभाग के जिम्मेदारों का दावा था कि अप्रैल के पहले हफ्ते तक शत-प्रतिशत किताबें वितरित जाएंगी। लेकिन ‘दावों की खान’ शिक्षा विभाग के जिम्मेदार अभी तक अपने ही दावों पर अमल नहीं कर पाये हैं।
हालांकि बीती 17 मई को डीजी शिक्षा ने राज्य स्तरीय बैठक करते हुए सभी अधिकारियों को चार दिन में शत-प्रतिशत किताबें बांटने के निर्देश दिए थे। वे चार दिन बीते एक पखवाड़ा हो चला है।
अंधा गाए बहरा बजाए
निःशुल्क किताब वितरण के मामले में विभाग के हालात ‘अंधा गाए, बहरा बजाय’ जैसे हो चली है। मीडिया में छपी खबरों की माने तो 17 मई की डीजी की बैठक में मातहत कई अफसरों ने कहा था कि शत-प्रतिशत किताबे बांट दी गई है।
लेकिन एडी गढ़वाल की रिपोर्ट के मुताबिक कई जिलों में प्रकाशन फर्म से मिली किताबें स्कूलों को उपलब्ध नहीं कराई गई है। कुछ जगहों में भण्डार गृह में किताबों की ढेर लगे मिले। सीआरसी को भी किताबें नहीं दी गई है।
टेंडर के फैसले पर उठते सवाल
दो महीने बाद भी स्कूलों में किताबें वितरित ना होने के चलते विभाग की कार्यशैली पर कई सवाल उठ रहे हैं। जानकार तो डीबीटी के बजाय किताबें छापने के लिए टेडर के फैसले पर ही सवाल उठा रहे है। जानकारों के मुताबिक ऐसा फैसला विभाग के जिम्मेदारों ने अपने चहेते ठेकेदारों को लाभ की गरज से लिया है। जबकि विभाग में दूसरों योजनाएं जैसे टेबलेट आदि के लिए डीबीटी का ही रास्ता अपनाया।