हरदा, देर आयद, दुरुस्त आयद
– बुढ़ापे की लाठी से करेंगे मोदी सूनामी का सामना
– अपनी अति महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ा दिया वीरेंद्र-आनंद का भविष्य
गुणानंद जखमोला
कांग्रेस ने हरिद्वार से पूर्व सीएम हरीश रावत के बेटे विरेंद्र रावत को चुनाव मैदान में उतारा है। आखिरी समय पर पार्टी हाईकमान ने यह फैसला किया है। हाईकमान ने नैनीताल से प्रकाश जोशी को टिकट दिया है। दोनों टिकट हरदा की मर्जी से ही दिये गये हैं। प्रकाश जोशी हरदा के बहुत निकटवर्ती हैं। हालांकि विरेंद्र को राजनीति के मैदान में उतारने में हरदा ने बहुत देर कर दी है। इस समय कांग्रेस के हालात ठीक नहीं हैं और उत्तराखंड में मोदी सूनामी की आशंका है। ऐसे में यह चुनौती होगी कि हरदा अपने बेटे की नाव को किस तरह से सूनामी में पार लगाते हैं?
1994 राज्य आंदोलन की बात है। विकास की उत्कंठा को लेकर हजारों महिलाएं, पुरुष, जवान, बच्चे और बूढे पहाड़ की पगडंडी से लेकर शहरों की गलियों तक अलग राज्य की मांग कर रहे थे। दिल्ली में भी पहाड़ी एकजुट हो रहे थे। 2 अक्टूबर मुजफ्फरनगर कांड के बाद तो प्रवासी पर्वतीय लोगों में भारी जनाक्रोश था। उस दौरान हरदा के पुत्र विरेंद्र रावत दयाल सिंह कालेज और चौबट्टाखाल विधानसभा सीट से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े राजपाल बिष्ट देशबंधु कालेज छात्र संघ अध्यक्ष थे। हम तीनों ही बहुत अच्छे दोस्त हैं। वो दोनों कालेज के दिनों से ही एनएसयूआई से जुड़े थे। विरेंद्र एक अच्छा और मेहनती इंसान है। उसमें कालेज समय से ही नेतृत्व की क्षमता है।
राज्य आंदोलन के दौरान हरदा पार्टी लाइन पर चलते हुए अलग राज्य का विरोध कर रहे थे। लेकिन इसके बीच विरेंद्र रावत हमारे साथ आंदोलन से जुड़ा रहा। वह अक्सर राज्य आंदोलन के धरने-प्रदर्शन में हमें सहयोग करता। उस जमाने में उसकी जीप हमारे काम आती। कहने का अर्थ यह है कि विरेंद्र रावत ने राज्य आंदोलन को लेकर पिता की नसीहत को दरकिनार करते हुए भी राज्य आंदोलन में शिरकत की। कालेज की पढ़ाई के बाद हम बिछड़ गये। मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में चला गया तो विरेंद्र और राजपाल राजनीति में। दोनों लगातार कांग्रेस से जुड़े रहे हैं और काम कर रहे हैं।
जब मैं देहरादून आया तो 2012 में कांग्रेस सरकार आ गयी। विजय बहुगुणा की लुटेरी सरकार के बाद हरीश रावत सीएम बने। जो कुछ हुआ, सबको पता है। सरकार खतरे में आई, नौ कांग्रेसी टूट गये। सुप्रीम कोर्ट का सहारा रहा। हरदा का चाहिए था कि 2017 में विरेंद्र या आनंद रावत को चुनावी मैदान में उतारते। आनंद भी बहुत ही प्रतिभाशाली और मेहनती है। फरवरी 2021 में मैंने हरदा से एक साक्षात्कार में पूछा कि आप किसको अपनी राजनीतिक विरासत सौंपेंगे तो उन्होंने कहा कि आनंद को। उन्होंने हौले से लेकिन मजबूत शब्दों में कहा कि पार्टी की इतने साल सेवा की है तो मुझे यह तय करने का मौका तो मिलना ही चाहिए।
संभवतः यही सोच इस बार उन्हें दिल्ली ले गयी। बेटे विरेंद्र रावत को टिकट दिलवाया। 76 साल की उम्र में हरदा ने फैसला लिया। हालांकि बेटी अनुपमा विधायक है। पत्नी को भी सांसद चुनाव लड़वा चुके हैं। लेकिन बेटों को राजनीति में जो समय और स्पेस चाहिए था वो उन्होंने नहीं दिया। कुछ समय पहले तक वह अपनी महत्वकांक्षाओं को ही साधने में लगे रहे। 2022 का चुनाव भी अपने को सीएम चेहरा के तौर पर लड़ना चाहते थे। अपनी अति महत्वकांक्षा और जिद के चलते हरदा ने कांग्रेस का भट्ठा बिठा दिया। कांग्रेस विधानसभा चुनाव में कई सीटों पर उनके गलत चयन से हार गयी। खैर, अब उन्होंने उम्र के इस पड़ाव में एक दांव और अजमाया है, देखें, विरेंद्र मोदी की सूनामी का सामना कैसे करता है। हरदा के लिए तो यही कहूंगा, देर आयद, दुरुस्त आयद।