पर्यावरण क्यों नहीं बन सकता राजनीतिक मुद्दा?
विकास शिशौदिया
लगभग हर राजनैतिक पार्टी ने आम चुनाव 2024 के लिए तैयारी शुरू कर दी है,भाग्य विधाता मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम मुद्दे उछालने भी शुरू कर दिए हैं, लेकिन आम चुनाव 2024 में उठने वाले तमाम मुद्दों में पर्यावरण के मुद्दों को महत्व दिए जाने को लेकर मेरे मन में लगातार सवाल उठ रहा हैं कि क्या राजनीतिक दल इन मुद्दों को उचित महत्व दे रहे हैं। सच कहूं तो मेरे पास इसका कोई जवाव नहीं है । देश के सामने खड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों और राजनीतिक दलों के वादों के बीच इतनी बड़ी खाई है कि टिप्पणी करना आसान काम नहीं है। मैं इसे समझाता हूं।
भारत आज अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। हवा की गुणवत्ता इस हद तक खराब हो गई है कि इसके चलते देश में बड़ी तादात में लोग मर रहे हैं। विश्व के अन्य सभी देशों के मुकाबले भारत में जहरीली हवा के कारण शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। वायु प्रदूषण के कारण भारतीयों का जीवन पांच साल तक घट रहा है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) का लेटेस्ट एडिशन जारी किया है। यह सूचकांक 2020 के आंकड़ों पर आधारित है। इस अध्ययन में वायु प्रदूषण से संभावित जीवनकाल पर पड़ने वाले प्रभावों को बताया गया है। सूचकांक के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली ने एक बार फिर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शीर्ष स्थान पाया है। दिल्ली में वायु प्रदूषण धूम्रपान से ज्यादा खतरनाक हो चुका है। धूम्रपान से संभावित जीवन में 1.5 वर्ष की कमी आती है लेकिन दिल्ली मे वायु प्रदूषण से जिंदगी करीब 10 साल तक कम हो सकता है। इसी तरह, देश में शिशुओं की मौत का एक और बड़ा कारण जल प्रदूषण है और हमारे जल प्रदूषण का स्तर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।
2018 में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कुल 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की – तीन साल पहले 302 खंडों की वृद्धि हुई है। केवल गंगा ही प्रदूषित नदी नहीं है, सभी प्रमुख और छोटी नदियां पानी की निरंतर निकासी और अपशिष्टों के अप्रयुक्त निपटान के कारण प्रदूषण का शिकार हो रही हैं।
भूजल के मामले में संकट और भी विकट है। हम अभी पीने के पानी की आपूर्ति पर लगभग 80 फीसदी निर्भर हैं और हम भूजल प्रदूषण के अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुके हैं। देश में 640 जिलों में से 276 का भूजल फ्लोराइड के कारण प्रदूषित है, 387 में नाइट्रेट है, 113 जिलों में हैवी मेटल्स हैं और 61 जिलों में भूजल में यूरेनियम है।
हमारे जंगल, वन्यजीव और जैव विविधता पतन की ओर अग्रसर हैं। पिछले तीन दशकों में, हमने प्राकृतिक वनों को बगीचों में बदल दिया है। मनुष्य और पशुओं का संघर्ष बढ़ गया है और मरुस्थलीकरण अब हमारी उत्पादक कृषि भूमि को प्रभावित कर रहा है।
इसके अलावा, अब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन है, जो लोगों के जीवन और आजीविका के लिए खतरा है। अत्याधिक बारिश, चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसे चरम मौसम की घटनाएं अब नियमित रूप से देश के एक हिस्से या दूसरे हिस्से को तबाह कर देती हैं। 2013 में उत्तराखंड बाढ़ थी, 2014 में जम्मू और कश्मीर बाढ़, 2015 में चेन्नई बाढ़ और 2018 में केरल बाढ़। प्रति वर्ष औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जाने जाती हैं तथा बाढ़ के कारण फसलों व मकानों तथा जन-सुविधाओं को होने वाली क्षति 1805 करोड़ रुपए है। भयंकर बाढ़ों की आवृति 5 वर्षों में एक बार से अधिक है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और भी बुरा होने वाला है क्योंकि निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान 1 डिग्री सेल्सियस से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।
ऐसी विकट स्थिति में, हमें राजनीतिक दलों से अपेक्षा करनी चाहिये कि वे एक गंभीर विचार के साथ सामने आए, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास और विकास की अनिवार्यताओं के संतुलन की बात हो, लेकिन अफसोस कि दो बड़े राजनीतिक दलों – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी – ने कभी भी अपने घोषणापत्र में पर्यावरण को एक मुख्य मुद्दे के रूप में नहीं रखा है। उन्होंने पर्यावरण को हमेशा एक परिधीय विषय के रूप में ही पेश किया है।
देश में लगभग हर पार्टी विकास की बातें करती हैं, लेकिन उस विकास से पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों और देशवासियों के लिए लगातार ख़तरा बनते जा रहे पर्यावरण संबंधी मुद्दा का कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता है। देश में होने वाले ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित कर रहा है सम्पूर्ण देशवासियों का अस्तित्व ही खतरे में डाल रहा है।
लेकिन अब समय आ गया है जब पर्यावरण का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के साथ हम सब के लिए सबसे ऊपर होना चाहिए क्योंकि अब भी अगर हमने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो आगे आने वाला समय इस से भी भयावह होगा। फिलहाल देश के सभी बड़े शहरों पर्यावरण संबंधित अलग अलग चुनौतियो का सामना कर रहे है।
चुनाव में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों नहीं है? मैं इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों को दोष नहीं दिया जा सकता है । राजनीतिक दल के वादे अपने मतदाताओं की प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं और, अधिकांश मतदाताओं के लिए पर्यावरण प्राथमिकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण प्रदूषण और विनाश के कारण लोग पीड़ित नहीं हैं। लेकिन उन्हें इस मुद्दे की पर्याप्त रूप से जानकारी नहीं है जिसके कारण भारत का मतदाता पर्यावरण को चुनाव में उठाये जाने वाला मत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा नहीं मानता और यह सिविल सोसायटी की विफलता है। हम सिविल सोसायटी में पर्यावरण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर अपने संदेश को ले जाने में विफल रहे हैं। यह समय है, जब हमें इस विफलता को पहचानें और मिलकर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को राजनैतिक और सामाजिक मुद्दा बनाये तथा उन समस्याओं को दूर करें।