November 24, 2024

या तो सत्ता के तंत्र के साथ रहो या फिर मारे जाओगे ….

Punya Prasun Bajpai

इनकांउटर हर किसी का होगा जो सत्ता के खिलाफ होगा । इस फेरहिस्त में कल तक पुलिस सत्ता विरोधियो को निशाने पर ले रही थी तो अब पुलिसवाले का ही इंनकाउटर हो गया क्योकि वह सत्ता की धारा के विपरीत जा रहा था । बुलंदशहर की हिंसा के बाद उभरे हालातो ने एक साथ कई  सवालो को जन्म दे दिया है । मसलन, कानून का राज खत्म होता है तो कानून के रखवाले भी निशाने पर आ सकते है । सिस्टम जब सत्ता की हथेलियो पर नाचने लगता है तो फिर सिस्टम किसी के लिये नहीं होता । संवैधानिक संस्थाओ के बेअसर होने का यह कतई मतलब नहीं होगा संवैधानिक संस्थाओ के रखवाले बच जायेगें । और आखरी सवाल क्या राजनीतिक सत्ता वाकई इतनी ताकतवर हो चुकी है कि कल तक जिस पुलिस को ढाल बनाया आज उसी ढाल को निशाने पर ले रही है ।

यानी लोकतंत्र को धमकाते भीडतंत्र के पीछे लोकतंत्र के नाम पर सत्ता पाने वाले ही है । और इन सारे सवालो के अक्स में बुलंदशहर में पुलिस वाले को मारने वाले आरोपियो की कतार में सत्ताधारी राजनीतिक दल से जुडा होना भर है या सत्ता के अनुकुल विचार को अपने तरीके से प्रचार प्रसार करने वाले हिन्दुवादी संगठनो की सोच है । जो बेखौफ है और जो ये मान कर सक्रिय है कि , उनके अपराध को अपराध माना नहीं जायेगा । यानी अब वह बारिक सियासत नहीं रही जब सत्ताधारी के लिये कानून बदल जाता था । सत्ताधारियो के करीबियो के लिये कानून का काम करना ढीला पड जाता था । या सत्ता के तंत्र काम करते रहे उनके लिये सिस्टम सत्ता के महज एक फोन पर  खुद को लचर बना लेता था । अब तो लकीर मोटी हो चली है । सत्ता कोई फोन नहीं करती । कानून ढीला नहीं पडता । कानून को बदला भी नहीं जाता । बल्कि सत्तानुकुल भीडतंत्र की लोकतंत्र हो जाता है । सत्ता के रंग में रंगी भीड ही कानून मान ली जाती है । और सिसटम के लिये सीधा संवाद सियासत खुद की हरकतो से ही बना देती है कि उसे कानून के राज को बरकरार रखने के लिये नहीं बल्कि सत्ता बरकरार रखने वालो के इशारे पर काम करना है । और ये इशारा बीजेपी के एक अदने से कार्यकत्ता का हो सकता है । संघ के संगठन विहिप या बंजरंग दल का हो सकता है । गौ रक्षको के नाम पर दिन के उजाले में खुद को पुलिस से ताकतवर मानने वाले भीडतंत्र का हो सकता है । जाहिर है बुलंदशहर को लेकर  पुलिस रिपोर्ट तो यही बताती है कि पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह की हत्या के पीछे अखलाख की हत्या की जांच को सत्तानुकुल ना करने की सुबोध कुमार सिंह की हिम्मत रही । जो पुलिस यूपी में कल तक  29 इनकाउंटर कर चुकी थी और हर इंनकाउंटर के बाद योगी सत्ता ने ताली ही पीटी । और इनकाउंटर करती पुलिसकर्मी को आपराधिक नैतिक बल सत्ता से मिलता रहा । तो जब उसके सामने  उसके अपने ही सहयोगी निडर पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह  आ गये तो सत्ता की ताली पर तमगा बटोरती पुलिस को भी सुबोध की हत्या में कोई गलती दिखायी नहीं दी । यानी पुलिसकर्मी सुबोध को मरने के लिये छोडना  पुलिस वालो को भीडतंत्र के किस राज की स्थिति में ले जा रही है और पुलिस को कानून के राज की रक्षा नहीं करनी है बल्कि सत्तानुकुल भीडतंत्र को ही सहेजना है । और ये हिम्मत की बात नहीं है कि अब पुलिस की फाइल में आरोपियो की फेरहसि्त में बजरंग दल के योौगेशराज हो या बीजेपी के सचिन  या फिर गौ रक्षा के नाम पर गले में भगवा लपेटे खुद को हिन्दुवादी कहने वाले राजकुमार, मुकेश, देवेन्द्र , चमन, राजकुमार , टिंकू या विनित के नाम है बल्कि इन नामो को अब सत्ताधारी होने की पहचान बुलंदशहर में मिल गई है ।और जिस मोटी लकीर का जिक्र शुरु में किया गया वह कैसे अब और मोटी की जा रही है इसे समझने के लिये तीन स्तर पर जाना होगा ।

पहला , पुलिस के लिये आरोपी वीआईपी अपराधी है । दूसरा वीआईपी आरोपी अपराधी की पहचान अब विहिप, बजंरग दल , गो रक्षा समिति या बीजेपी के कार्यकत्ता भर की नहीं रही , उसका कद सत्ता बनाये रखने के औजार बनने का हो गया । तीसरा , जब पुलिस के लिये सत्तानुकुल हो कर अपराध करने की छूट है तब न्यायलय के सामने भी सवाल है कि वह जाच के सबूतो के आधार पर फैसले दें जिस जांच को पुलिस ही करती है । और किसा तरह इन तीन स्तरो को मजबूत किया गया उसके भी तीन उदाहरण है । पहला तो सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुये जस्टिस जोसेफ के इस बयान से समझा जा सकता है जब वह कहते है कि पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के वक्त उपर से निर्देश दिये जा रहे थे । और रोटी पानी के लिये कैसे वह समझौोता कर सकते है । यानी सुप्रीम कोर्ट की कारर्वाई को भी अगर जस्टिस जोसेफ के नजरिये से समझे तो सत्ता सुप्रीम कोर्ट को भी अपने खिलाफ जाने देना नहीं चाहती और दूसरा न्याय की खरीद फरोख्त सत्ता के जरीये भी हो रही है । यानी जो बिकना चाहता है वह बिक सकता है । लेकिन इसके व्यापक दायरे को समझे तो सत्ता कोई कारपोरेट संस्था नहीं है । बल्कि सत्ता तो  लोकतंत्र की पहचान है । संविधान के हक में खडी संस्था है । लेकिन जिस अंदाज में सत्ता काम कर रही है उसमें सत्तानुकुल होना ही अगर सबसे बडा विचार है या फिर जनता द्वारा चुनी हुई सत्ता लोकतंत्र को प्रभावित करने के लिये आपराधिक कार्यो में संलिप्त हो जाये या आपराधिक कार्यो से खुद को बरकरार रखने की दिशा में बढ जाये तो क्या होगा । जाहिर है इसके बाद कोई भी संवैधानिक संस्था या कानू का राज बचेगा कैसे  ? दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में नया सवाल ये भी है कि क्या चुनाव अलोकतांत्रिक होते माहौल में एक सेफ्टी वाल्व है । और अभी तक ये माना जाता रहा कि चुनाव में सत्ता परिवर्तन कर जनता अलोकतांत्रिक होती सत्ता के खिलाफ अपना सारा गुस्सा निकाल देती है । लेकिन इस प्रक्रिया में जब पहली बार ये सवाल सामने आया है कि चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा को ही अलोकतांत्रिक मूल्यो को परोस कर बदल दिया जाये । यानी पुलिस, कोर्ट , मीडिया , जांच एंजेसी सभी अलोकतांत्रिक पहल को सत्ता के डर से लोकतांत्रिक बताने लगे तो फिर चुनाव सेफ्टी वाल्व के तौर पर भी कैसे बचेगा ? क्योकि हालात तो पहले भी बिगडे लेकिन तब भी संवैधानिक संस्थाओ की भूमिका को जायज माना गया । लेकिन जब लोकतंत्र का हर स्तम्म सत्ता बरकरार रखने के लिये काम करने लगेगा और देश हित या राष्ट्रभक्ति भी सत्तानुकुल होने में ही दिखायी देगी तो फिर बुलंदशहर में मारे गये पुलिस कर्मी सुबोध कुमार सिहं के हत्यारे भी हत्यारे नहीं कहलायेगें । बल्कि आने वाले वक्त में संसद में बैठे 212 दागी सांसदो और देश भर की विधानसभाओ में बैठे 1284 दागी विधायको में से ही एक होगें । तो इंतजार किजिये आरोपियो के जनता के नुमाइन्दे होकर विशेषाधिकार पाने तक का ।    

पुण्य प्रसून बाजपेयी


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