सवर्णों के लिए आरक्षण की कोशिश पहले हो चुकी है नाकाम, ये है पूरी कहानी
केंद्र सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सामान्य वर्ग के लिए एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया। सरकार के इस कदम को मास्टर स्ट्रोक कहा जा रहा है। तो कुछ लोगों का कहना है कि ये फैसला सरकार ने पहले क्यों नहीं लिया, चुनाव से कुछ ही समय पहले क्यों लिया? वजह चाहे जो हो, इस प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिल चुकी है। अब इस संबंध में संसद में बिल पेश किया जाएगा। आरक्षण हमेशा से ही एक ऐसा मुद्दा रहा है, जो सिसायत को नया मोड़ देने के लिए अहम साबित हुआ है। चाहे फिर नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किए जाना ही क्यों न रहा हो। इस रिपोर्ट के लागू होने के बाद देश में भारी हिंसक प्रदर्शन तक हुए थे। राजनीति में चल रही आरक्षण की ये कहानी आज की नहीं है बल्कि आजादी से पहले से चली आ रही है। चलिए आपको विस्तार से बताते हैं इस कहानी के बारे में-
आजादी से पहले आरक्षण को लेकर उठाए गए बड़े कदम
– साल 1932 में पूना पैक्ट आया था, जिसमें समाज के शोषित तबके के लिए प्रदेश की विधानसभाओं में 148 सीटें और केंद्र में 18 फीसदी सीटें आरक्षित की गईं।
– समाज के कमजोर तबके के लिए सीटों के आरक्षण को गर्वमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में शामिल किया गया। ब्रिटिश सरकार ने संघीय ढांचे को बनाए रखने के लिए (जिसमें रियायतों को शामिल किया गया है) कानून बनाया। इस एक्ट में पहली बार अनुसूचित जाति का इस्तेमाल हुआ।
– अभी तक जाति के आधार पर नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई थी। साल 1942 आया, अब बाबा साहेब अंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि समाज के कमजोर तबके को नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए।
– साल 1947 आ गया, देश को आजादी मिल गई। संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ था और 1947 में संविधान तैयार हुआ। जो 1950 में लागू हुआ। संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया गया।
आजादी के बाद ऐसे आगे बढ़ी आरक्षण की कहानी
– 1950 में भारतीय संविधान लागू हुआ और यहीं से आरक्षण की नींव रखी गई। इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को शिक्षा, नौकरी, संसद और विधानसभाओं में न केवल आरक्षण दिया गया बल्कि समान अवसरों की गारंटी भी दी गई।
आरक्षण के पक्ष में तर्क दिया गया कि इससे सदियों से जाति के आधार पर चले आ रहे भेदभाव को समाप्त किया जाएगा। आरक्षण जाति के आधार पर दिया गया। इसे उन लाखों लोगों के लिए एक तरह के हर्जाने के तौर पर देखा गया जिन्होंने अछूतेपन और नाइंसाफी का सामना किया था।
– अब आया 1953, अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की पहचान के लिए इसी साल पिछड़ा वर्ग आयोग (बैकवर्ड क्लास कमिशन) का गठन किया गया।
– इसके बाद साल 1963 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया। जिसमें कहा गया कि आरक्षण 50 फीसदी से ऊपर नहीं हो सकता।
– अब बारी थी अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने की। शोषित जातियों के लिए आरक्षण पर विचार करने के लिए 1978 में मंडल आयोग का गठन हुआ। इस आयोग ने अन्य पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिए जाने का सुझाव दिया।
– साल 1989 में आरक्षण पर उस वक्त राजनीति तेज हो गई जब वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। इन सिफारिशों के बाद देश में हिंसक प्रदर्शन हुए।
– इसके बाद आरक्षण का सिलसिला बढ़ता गया। वक्त-वक्त पर कई दल आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग करने लगे। केवल इतना ही नहीं सत्ता में बैठी पार्टियों ने भी गरीब सामान्य वर्ग के आरक्षण का फैसला किया और आयोगों का गठन भी हुआ।
सामान्य वर्ग को आरक्षण
सवर्ण आरक्षण- 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने गरीब सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। लेकिन साल 1992 में इसे असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने इस फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी सभी तरह के आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में सामाजिक पिछड़ेपन को पहचान दी गई। वहीं ओबीसी को दिया गया 27 फीसदी आरक्षण बरकरार रहा।
– 1995 में आर्टिकल 16 में 77 वां संशोधन किया गया। इसके तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण जारी रखने की इजाजत दी गई।
– 1997 में संविधान में 81वां संशोधन किया गया। जिसमें 50 फीसदी की सीमा से बाहर बैकलॉग आरक्षित वेकन्सी को अलग समूह में रखने को मंजूरी मिली।
– 82वां संविधान संशोधन साल 2000 में किया गया। इसके तहत आर्टिकल 335 में प्रावधान किया गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को प्रमोशन में छूट दी जाएगी। इन सभी संशोधनों की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
– साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने इन संशोधनों को सही ठहराया। वहीं राज्यों को कहा कि उन्हें आरक्षण का प्रावधान करने से पहले उसकी वजह बतानी होगी।
– राज्यों के अंतर्गत नौकरी में प्रमोशन में आरक्षण की शुरुआत सबसे पहले उत्तर प्रदेश से 2007 में की गई। लेकिन 2011 में इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
– हाई कोर्ट के फैसले को 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा और सरकार की सभी दलीलें खारिज हो गईं। अदालत ने कहा कि यूपी सरकार जाति के आधार पर नौकरी में प्रमोशन में आरक्षण के लिए पर्याप्त डाटा पेश करने में नाकाम रही है।