November 25, 2024

शाहजहां : जिसे अकबर और उसके हिंदुस्तान का असली वारिस कहा जाना चाहिए

Shahjahan

हिंदुस्तान में मुग़लिया सल्तनत कायम करने वाला बाबर था और उसे मज़बूती देने का काम अकबर ने किया था. न हुमायूं और न ही जहांगीर उस दर्ज़ा क़ाबिल थे जितने कि ये दोनों. हां, पांचवां मुग़ल यानी शाहजहां वह शहंशाह हुआ है जिसे कई मायनों में ‘अकबर के हिंदुस्तान’ का वारिस कहा जा सकता है. यहां ‘अकबर के हिंदुस्तान’ का मतलब राज्य की सीमा, हिंदू-मुस्लिम तहज़ीब और कला-संस्कृति के उत्थान से है.

राजाओं पर लिखने में सबसे बड़ा जोख़िम होता है सही तथ्य जुटाना क्योंकि इतिहास तो हमेशा से ही संगीनों साए में और सिक्कों की खनक पर लिखे जाते रहे हैं. मौजूदा दौर के इतिहासकार बनारसी प्रसाद सक्सेना के ‘शाहजहां का इतिहास’ को काफ़ी हद तक सही माना जाता है और उसकी बुनियाद है अब्दुल हमीद लाहोरी का ‘शाहजहांनामा’. उसके हवाले से कुछ बातें यहां दर्ज़ की जा रही हैं.

अकबर की निगेहबानी में ख़ुर्रम का बचपन

पांच जनवरी, 1592 की जुमेरात (गुरुवार) को पैदा हुए जहांगीर की बेगम के बेटे पर सबसे ज़्यादा कोई ख़ुश था तो अकबर था. जहांगीर ने अकबर से उसके बेटे का नाम रखने की इल्तिजा की. अकबर ने उसे ख़ुर्रम कहकर बुलाया. फ़ारसी में ख़ुर्रम का मतलब है ख़ुशी. पैदाइश के छठवें दिन ख़ुर्रम को अकबर की बेगम रुकैया के हवाले कर दिया गया. बेगम रुकैया की संतान नहीं थी. उसने ख़ुर्रम को गोद ले लिया.

ज़िंदगी भर अनपढ़ रह जाने वाले अकबर ने ख़ुर्रम की तालीम-ओ-इल्म में कोई कोर कसर नहीं रखी. साथ ही, बढ़िया उस्तादों से उसे जंग के सबक भी दिलवाए. अकबर का 15 साल के ख़ुर्रम के लिए लगाव इतना बढ गया था कि वह उसे जंगों पर ले जाने लगा. इससे ज़ाहिर होता है कि ख़ुर्रम के ‘शाहजहां’ बनने की बुनियाद में अकबर की निगेहबानी है.

बतौर शहंशाह उसका जीवन

शाहजहां 36 साल की उम्र में हिंदुस्तान का बादशाह बन गया था. पर इसके लिए उसे जहांगीर के ख़िलाफ़ कुछ ऐसी ही बग़ावत करनी पड़ी, जैसे कभी जहांगीर ने अकबर के ख़िलाफ़ की थी. दरअसल, मुग़लों में वारिस का फ़ैसला तलवार के ज़ोर पर ही हुआ. नूरजहां को शाहजहां से ही चुनौती मिलने की संभावना थी, सो उसने शाहजहां को हर समय जंग में ही खपाए रखने की योजना बनायी.

जहांगीर के तकरीबन सभी विजयी अभियानों का नायक शाहजहां ही था.कभी काबुल, कभी बंगाल और कभी दक्कन, शाहजहां हर जगह जीत का परचम फहरा रहा था. उसका जूनून इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि दक्कन जीत लेने तक उनसे शराब न पीने का फैसला किया था. यकीनन उसमें लड़ने का माद्दा अकबर के माफ़िक ही था और शासन में भी वह अपने दादा से कमतर साबित नहीं हुआ. जहांगीर से बग़ावत करने के जुर्म में माफ़ीनामे के तौर पर नूरजहां ने उसके बेटे दारा और औरंगज़ेब को अपने पास बतौर निशानी रखा था.

सुबह की नमाज़ अदा करने के बाद और रात को ‘बाबरनामा’ पढ़कर सोने से पहले शाहजहां दिन भर कामकाज में व्यस्त रहता. दीवाने-ख़ास में सिपहसालारों से मशविरा और दीवाने-आम में फ़रियादें सुनकर फ़ैसले करना उसका रोज़ का नियम था. इसलिए कोई ताज्जुब नहीं होता कि उसने 22 साल के शासन में काफ़ी कुछ हासिल किया था.

मुमताज़ से मुहब्बत

अर्जुमंद बानो यानी मुमताज़ के अलावा फ़ारस के सुल्तान शाह इस्माइल की बेटी और अब्दुल रहीम खानखाना की पोती शाहजहां की दो और बेगमें थीं. पर उसको मुहब्बत मुमताज़ से ही थी. वह उसको हर जंगी दौरे पर साथ ले जाया करता. बैम्बर गैस्कॉइन अपनी बेहद चर्चित क़िताब ‘द ग्रेट मुग़ल्स’ में लिखते हैं कि शाही फ़रमान के मसौदों पर मुमताज़ की मुहर लगती थी और शाहजहां अक्सर सल्तनत के मसलों पर उससे राय लिया करता. 1628 में शाहजहां की ताजपोशी के महज़ तीन साल बाद पंद्रहवीं संतान की जचगी के दौरान मुमताज़ की सात जून, 1631 को बुरहानपुर में मौत हो गई. शाहजहां उसे वहीं दफ़ना कर आगरा चला आया.

इतिहासकार और प्रोफ़ेसर रामनाथ ने जून 1969 में ‘द मार्ग’ मैगज़ीन में एक लेख लिखा था. उसके मुताबिक मुमताज़ के इंतेकाल के बाद शाहजहां ने पूरे दो साल तक मातम मनाया. नाथ लिखते हैं कि उस दौरान उसने न तो शाही लिबास पहने और न ही किसी शाही जलसे में शिरकत की. गैस्कॉइन भी लिखते हैं, ‘मुमताज़ की मौत के बाद शाहजहां के जीवन में खालीपन आ गया था. दो साल तक उसने जलसे, संगीत और शाही खाने से दूरी रखी.’

स्थापत्य कला में अकबर काल से भी आगे

इसमें कोई दोराय नहीं कि शाहजहां सबसे बेहतर मुग़ल वास्तुकार था और ताजमहल यकीनन मुग़ल काल की सबसे बेहतरीन इमारत है. गैस्कॉइन लिखते हैं, ‘कई दशकों तक इस बात पर बहस होती रही है कि आख़िर ताजमहल का वास्तुकार (आर्किटेक्ट) कौन है. ताज के लिए शाहजहां ने कई वास्तुकारों के डिज़ाइन देखे थे. बहुत अरसे तक माना जाता रहा कि वेनिस के वास्तुकार जेरोनिमो वेरोनीओ के डिज़ाइन के आधार पर इसे बनाया गया.’ वे आगे लिखते हैं, ‘ये भी माना जाता था कि तुर्की या शिराज़ का ईसा अफांदी इसका असल वास्तुकार है. कुछ लोग लाहौर के उस्ताद अहमद को इसका श्रेय देते हैं पर किसी एक वास्तुकार के सिर इसका सेहरा नहीं बांधा जा सकता’.

गैस्कॉइन मुताबिक़ इसका असल वास्तुकार अगर कोई था तो वह ख़ुद शाहजहां ही था. अपनी बात को पुख्ता करते हुए वे कहते हैं कि शाहजहां को 15 साल की उम्र से आर्किटेक्चर से लगाव था. जब वह काबुल में तैनात था तो उसने मौजूदा किले में बदलाव करके अपने हुनर का जलवा दिखाया था. नए दौर के वास्तुकार मानते हैं कि ताजमहल हिंदू और फ़ारसी स्थापत्य कला का संगम है. इतिहासकार हैवेल भी इस बात पर सहमत हैं. उनके मुताबिक़ इसकी तामीर में सबसे अहम बात है बीच का गुंबद और उसको घेरे हुए चार छोटे गुम्बद. वे कहते हैं कि ये गुंबद हिंदुस्तान के पंचरत्न की अवधारणा हैं और गुप्त काल में भीतरगांव (कानपुर) में पक्की ईंटों से बने गुंबदनुमा शैली के मंदिर पर ही ताजमहल आधारित है.

राम नाथ बात उस तथ्य को आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि इसका चतुर्भुज आकार हिंदू वास्तुकला की देन है जिसके मुताबिक़ मंदिर के मुख्य भाग यानी गर्भगृह, में चारों दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है. ताज के आगे बना चारबाग़ काबुल में बाबर द्वारा बनाए गए बाग़ों से प्रेरित है और पहले की कई मुग़ल इमारतों का भी इस पर प्रभाव देखा जा सकता है. ताजमहल की अंदर की कारीगरी पर यूरोप की वास्तुकला का असर देखा जा सकता है. तो इस आधार पर कहा सकता है कि ताजमहल विश्व की उन गिनी-चुनी इमारतों में से एक है जहां कई कलाओं का संगम होता है. जब यह बनकर तैयार हुआ तो मुमताज की अस्थियों को इसमें दफ़्नाया गया

अन्य कलाएं और हिंदू प्रभाव

जिस चित्रकारी की कला को हुमायूं काबुल से हिंदुस्तान लाया था उसमें शाहजहां ने हिंदू रंग भर दिए. कोलंबिया विश्वविद्यालय के लेख से एक दिलचस्प ख़ुलासा होता है कि शाहजहां के काल में सिर्फ एक ही फ़ारसी चित्रकार होता था, या कहें कि हर हुनर के लिए सिर्फ एक ही फ़ारसी फ़नकार होता था बाकी सब हिंदू ही थे. इससे उस काल में शासन पर हिंदू प्रभाव देखा जा सकता है.

मज़हबी मेल का बेजोड़ काल

जहांगीर आधा मुग़ल था और जगत गोसाईं यानी शाहजहां की मां राजपूत. इसलिए, कह सकते हैं कि शाहजहां की रगों में महज़ एक चौथाई मुग़लिया ख़ून रह गया था. ख़ुद वह सुन्नी था जबकि मुमताज़ शिया थी. ज़ाहिर है कि धार्मिक कट्टरवाद कम होना ही था और हुआ भी. पर मुमताज़ के गुज़र जाने के बाद, सुन्नी उलेमाओं ने उसे अपने कब्ज़े में ले लिया. बैम्बर गैस्कॉइन लिखते हैं कि यह वह दौर था जब शाहजहां के लिए कट्टर होना फ़ायदेमंद था. सो, उसने कई मंदिर गिरवाए और फ़रमान जारी करवाया कि ढीम्मी या काफ़िर नए मंदिर नहीं बनवा सकते.

पर यह सब ज़्यादा समय तक नहीं चला क्योंकि उसका सबसे बड़ा बेटा और उसका चहेता दारा शिकोह हिंदू संस्कृति से हद दर्ज़े तक प्रभावित था. उसने उपनिषदों, रामायण और महाभारत का फ़ारसी में अनुवाद किया था. दारा की धार्मिक सहिष्णुता अकबर से भी दो कदम आगे जाती है. अकबर द्वारा चलाये ‘दीन-ए-इलाही’ में यूं तो कहने को हर मज़हब का संगम होने के बावजूद इस्लाम का तत्व कुछ ज़्यादा है, लेकिन दारा के मज़हबी तावाज़ुल (तराजू) में दोनों पलड़े बराबर हैं. यह भी सत्य है कि शाहजहां दारा को ही अपना वारिस चुनना चाहता था.

लेकिन न वह अपनी पसंद का वारिस चुन पाया और न ही हिंदुस्तान की रियाया ने ऐसा करने में दिलचस्पी दिखाई. औरंगज़ेब ने शाहजहां को क़ैद करके आगरे के किले में डाल दिया और एक बार फिर तलवार की धार ने नया वारिस चुन लिया.


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *