एक फिल्मकार जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी में सिर्फ़ सात फ़ीचर फ़िल्में बनाईं
विकास शिशौदिया
बात 14 अगस्त 1986 की है। आन्द्रे तारकोवस्की पेरिस के किसी अस्पताल में मौत से लड़ रहे थे। इधर कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उनकी उस फ़िल्म की स्क्रीनिंग हो रही थी, जिसे उन्होंने अपने बेटे की नज़्र किया था। यह फ़िल्म थी—‘सैक्रिफ़ाइज़’। सिनेमाघर में इस कवि-फ़िल्मकार के चाहने वालों की भीड़ फ़िल्म के हर फ़्रेम, हर लम्हे और हर मंज़र में छिपे फ़िल्म के प्रति उनके ‘पैशन’ को महसूस कर रही थी, और उनकी बनाई दुनिया में रह रही थी।
‘सैक्रिफ़ाइज़’ तारकोवस्की की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। एक हफ़्ते बाद जब अवार्ड सेरेमनी में तारकोवस्की का नाम लिया गया, तो उनका चौदह-पंद्रह साल का बेटा अन्द्रिउश्का (Andriushka) मंच पर गया। यह फ़िल्म अन्द्रिउश्का को ही समर्पित थी।
तारकोवस्की ने अपनी पूरी ज़िंदगी में सिर्फ़ सात फ़ीचर फ़िल्में ही बनाईं। ये सातों फ़िल्में आज विश्व-सिनेमा का शाहकार हैं। तारकोवस्की की फ़िल्मों को देखते हुए लगता है कि अगर ‘मौन’ का कोई रूप होता, तब शायद यही होता। कैमरे की ज़द में आने वाली हर शय जैसे अनंतकाल से मौन पड़ी हो। ऐसी बात नहीं है कि उनकी फ़िल्मों का ट्रीटमेंट साइलेंट सिनेमा जैसा है, बल्कि उनके पात्रों द्वारा कहे गए संवाद ही इस मौन को रचते हैं, जो इंसानी अस्तित्व का एक बहुत अहम् अंग है। ऐसा जान पड़ता है कि यदि वस्तुओं के पास बोलने की क्षमता होती, तब तारकोवस्की के फ़्रेम में आने वाली वस्तुएँ ही इन संवादों को वहन करतीं। इसके साथ ही इस सिने-संसार में सारे पात्र अपने साथ एक उदासी लिए हुए चलते हैं। इस उदासी में मानव-जाति के अस्तित्व का प्रश्न निहित होता है।
किसी भी कलाकार की अपनी दुनिया होती है। वह अपनी कला में एक दुनिया रचता है जिसका ‘फ़्रेम ऑफ़ रेफ़रन्स’ यह दुनिया हो भी सकती है और नहीं भी। तारकोवस्की भी यही करते हैं। वह इस दुनिया को ‘फ़्रेम ऑफ़ रेफ़रन्स’ मानकर अपनी एक दुनिया बनाते हैं; जिसके एस्थेटिक्स में कभी जलते हुए घर, कभी थरथराते काँच के गिलास, बड़े-बड़े मैदान, पेड़, एकांत, अकेलापन, ‘फ़ेथ’ और मौन आते-जाते रहते हैं। फ़िल्म आगे बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे दर्शक तारकोवस्की की दुनिया के बाशिंदे हो जाते हैं। वे इसे अपना रेफ़रन्स फ़्रेम बना कर अपनी अस्ल दुनिया को देखते हैं। यह काम अपने वर्तमान में झाँकने जैसा है, जो अतीत में झाँकने से अधिक कष्टदायक है। यह अचानक नहीं है कि तारकोवस्की की फ़िल्मों को देखते हुए हमारे अंदर एक ऐसी पीड़ा जन्म लेती है, जिसका कारण कोई वास्तविक दुःख नहीं होता। हम इस पीड़ा के ज़रिए उस दुनिया में दाख़िल हो सकते हैं, जिसे ‘स्टाकर’ में तारकोवस्की ने ‘ज़ोन’ कह कर परिभाषित किया है—जहाँ तीन भटकते हुए दोस्तों में एक खो जाता है।
तारकोवस्की के विजुअल्स सदा याद रह जाने वाले विजुअल्स हैं। वह अपनी किताब ‘स्कल्पटिंग इन टाइम’ में लिखते हैं : ‘Art symbolizes the meaning of existence.’ उन्होंने एक कलाकार की हैसियत से अपनी इस बात पर अमल भी किया है। वह अक्सर पेंटिंग्स के ज़रिए अपनी फ़िल्म का सार बताते हैं। उनके फ़्रेम में आने वाली पेंटिंग्स उनकी फ़िल्म का हिस्सा नहीं बनतीं, बल्कि फ़िल्म उस पेंटिंग का हिस्सा लगती है। कभी-कभी इन्हीं पेंटिंग्स से प्रभावित होकर, वह अपना एक दृश्य रच देते हैं। यह पूरी की पूरी चित्रकारी अपने सौंदर्य और प्रभाव के साथ स्क्रीन पर जीवंत हो जाती है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर Pieter Bruegel the Elder की पेटिंग ‘द हन्टर्स इन द स्नो’ को तारकोवस्की ने अपनी फ़िल्म ‘मिरर’ में में उतारा है। इसी पेंटिंग का प्रयोग उन्होंने ‘सोलारिस’ में भी किया है। विभिन्न तरह से तैयार होती फ़िल्म को, वह मानवता के जल से सींचते हुए चलते हैं। वह दर्शक को इस भौतिकवाद की दुनिया से एक ऐसे संसार में ले जाते हैं, जहाँ मानव-जीवन के मूल्यों की खोज की जाती है। जहाँ संसार के नष्ट हो जाने का भय भी होता है और समाज को ठीक करने की ‘अपील’ भी। कोई पागल यह बताते हुए अपने शरीर में आग लगा लेता है कि अब भी देर नहीं हुई और इस संसार को अब भी बचाया जा सकता है।
इस आलेख के आरंभ में तारकोवस्की को एक कवि-फ़िल्मकार कहा गया है। इसका मुख्य कारण शायद यह है कि तारकोवस्की ने अपनी सिनेमासाज़ी को एक कवि-कर्म के रूप में लिया। कवि-कर्म जहाँ हर क्षण कवि को अपनी आस्था और संसारिकता के बीच चुनना पड़ता है और उसी ‘फ़ेथ’ के रास्ते पर चलना पड़ता है जिस पर ‘नॉस्टेल्जिया’ के आख़िरी दृश्य में नायक को अपने फ़ेथ की परीक्षा देने के लिए मोमबत्ती जलाकर एक प्राचीन पुल को पार करने का कार्य दिया जाता है।
तारकोवस्की की फ़िल्मों, इनके पात्रों और इनके संवादों से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपना सारा जीवन एक पीड़ादायक अकेलेपन में गुज़ारा है। उन पर सदा ही जीवन के प्रति उदासीनता और अकेलेपन के बादल छाए रहे। उन्हें शायद अक्सर इस बात का भय रहा हो कि ये बादल अंत में उन्हें ढक लेंगे। उन्होंने सिनेमा बनाने की कला को अपनी जीवन-यात्रा के मार्ग के रूप में चुना और हमें बहुत अमूल्य फ़िल्मों से नवाज़ा। या शायद हम उनका जीवन समझने में भूल भी कर सकते हैं, क्योंकि हम उस संसार के हैं—जहाँ ‘लॉजिक्स’ को सबसे अधिक प्रधानता दी जाती है।