November 24, 2024

विश्लेषण: भिन्न है भौगोलिक परिस्थितियां, उत्तराखंड के स्कूलों की तुलना मैदानी राज्यों से करना गलत

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देहरादून: उत्तराखंड में शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित उन शिक्षकों को सलाम, जिन्होंने अपने अथक प्रयासों से सीमित संसाधनों में प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों को मॉडल स्कूल बनाया। ग्रामीण परिवेश के बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं दिया, बल्कि उनमें पर्यावरण संरक्षण, दूसरों की मदद करना और देश सेवा के संस्कार दिए।

बिल्डिंग सर पर छत दे सकती है, संस्कार तो गुरुजनों से ही मिलेंगे। महर्षि वशिष्ठ और विश्वमित्र राम को शिक्षा देने दशरथ के महल में नहीं गए थे, बल्कि राजा दशरथ ने अपने पुत्रों को जंगल में उनके आश्रम में उन्हें शिक्षा ग्रहण करने भेजा था। अगर बिल्डिंग ही महत्वपूर्ण होती तो वह शिक्षा देने महल में ही आते। इसलिए बिल्डिंग बड़ी बात नहीं। संस्कार बड़ी चीज है, जो हमारे गुरुजन बेहतर तरीके से दे रहे हैं।

सीमित संसाधनों में हमारे सैकड़ों स्कूल जर्जर हैं। जुबा पर क, ख, ग होता है और सिर पर खतरा रहता है। कई स्कूल ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए गुरुजनों को रोजाना चार, पांच और कहीं इससे भी ज्यादा पैदल चलना पड़ता है। कई गुरुजन तो ऐसे हैं जो अपनी जेब से बच्चों की फीस भी भरते है। दुख तख़लीफ़ में गरीब अभिभावकों की मदद भी करते हैं।

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उत्तराखंड के स्कूलों को सुगम, दुर्गम और अतिदुर्गम जैसी श्रेणियों में बांटा जाता है, जहां शिक्षक अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

दिल्ली में तो सब सुगम होगा। यहां, सुगम, दुर्गम और अतिदुर्गम में स्कूल हैं। कुछ ऐसे भी स्कूल हैं जहां छात्र और गुरुदेव गाड़ गदेरे पार कर स्कूल पहुंचते हैं।

ऐसे में आप पहले शिक्षा का अपना रोडमैप सामने रखिये, यहां शिक्षा विभाग में कितनी तरह के शिक्षक हैं, आप पहले पता कर लें। धन्य हैं वो गुरुजन जो वर्षो से दुर्गम में सेवाएं दे रहें हैं और कभी शिकायत तक नहीं करते।

आप पहले उत्तराखंड के स्कूलों की यात्राएं कीजिए। दुर्गम, अतिदुर्गम, फिर बात कीजिए शिक्षा नीति पर। ये दिल्ली की सीधी सपाट लंबी चौड़ी सड़कें नहीं, बल्कि पहाड़ की ऊंची, नीची, आड़ी, तिरछी कहीं पक्की कहीं कच्ची सड़कें हैं। जो कहीं स्कूल तक जाती हैं, कहीं स्कूल से बहुत पहले ही समाप्त हो जाती हैं।

आप पहले उन गुरुजनों का आशीर्वाद लीजिए जो, विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले प्रदेश के अतिदुर्गम स्कूलों में शिक्षा की जोत जला रहे हैं, फिर बात कीजिए बिल्डिंग की। यहां की बिल्डिंगों का अपमान बाद में कीजिएगा। क्योंकि हमारे संस्कार कहते हैं पहले गुरुजनों का सम्मान कर लीजिए।