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देहरादून: प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था का हाल क्या है इसे समझने के लिए किसी राॅकेट साइंस की जरूरत नहीं है। बल्कि मुख्य शिक्षा अधिकारी देहरादून का प्रकरण ही प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था की दशा और दिशा को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। दरअसल आजकल मुख्य शिक्षा अधिकारी पद पर जो घटनाक्रम घटा वह प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए काफी निराशाजनक और चिंतनीय है। इस तरह की घटना से साफ हो जाता है कि हम अपनी नस्लों के प्रति कितने जवाबदेह और फिक्रमंद हैं। प्रदेश में सरकारी स्कूलों में गिरता शिक्षा का स्तर और निजी स्कूलों का बोलबाला होने के पीछे की वजहों में यह घटना भी प्रमुख है। जहां तक सत्ता शीर्ष की बात करें तो बागडोर चाहे किसी के हाथों में भी रही हो लोकतांत्रिक राजा हमेशा मूकदर्शक रहा और रहेगा इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
मुख्य शिक्षा अधिकारी प्रकरण
देहरादून के मुख्य शिक्षा अधिकारी प्रकरण शिक्षा विभाग से लेकर शासन-प्रशासन और सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति को बयां करता है। दरअसल 17 जुलाई को एक शासनादेश के तहत देहरादून की मुख्य शिक्षा अधिकारी का स्थानांतरण कर डायट चमोली के लिए कार्यमुक्त किया गया। इस पद की जिम्मेदारी शासन द्वारा एस.सी.ई.आर.टी. के उपनिदेशक को सौंपी गई। लेकिन इसके उपरांत विभाग में जो घटनाक्रम घटा उससे शिक्षा विभाग में एक नई कुप्रथा का प्रचलन शुरू हो गया। दरअसल शासन द्वारा जो स्थानांतरण का फैसला लिया गया था उसके खिलाफ महिला अधिकारी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मुख्यमंत्री पर जबरदस्त दबाव बनाया और मुख्यमंत्री धृतराष्ट्र बना कर रातोंरात फैसला बदलवा दिया। यह घटनाक्रम बताता है जिस पहाड़ी राज्य के लिए लड़े-मरे थे उसकी अवधारण को आज हमारे ही लोग कुचल रहे हैं और पहाड़ से परहेज कर रहे हैं। शिक्षा विभाग सबसे अहम विभाग माना जाता है ऐसे में इसी के अधिकारी और कर्मचारी पहाड़ जाने से कतराने लगे तो फिर पहाड़ का भविष्य को आकार कौन देगा। क्या पहाड़ के गुदड़ी के लाल का हक मुख्यमंत्री पर दबाव बना कर मार दिया जायेगा। प्रश्न गंभीर है लिहाजा सचेत होने की आवश्यकता है।
सिर्फ नाम का तबादला एक्ट
यूं तो शिक्षा विभाग में स्थनांतरण के लिए बकायदा एक्ट बना है। इस एक्ट के तहत ही विभागीय स्थानांतरण होते हैं। लेकिन जब पहुंच ऊंची हो तो फिर एक्ट के कोई मायने नहीं रह जाते हैं। यह बात इस प्रकरण से साबित होती है। देहरादून सीईओ का स्थानांतरण भी इसी तबादला एक्ट के तहत 25 जून को हो चुका था। महिला सीईओ को बकायदा डायट चमोली स्थानांतरण कर दिया गया था। लेकिन ऊंची पहुंच के चलते जब उच्च अधिकारी ही एक्ट की धज्जियां उड़ा रहे हो तो कहना बेमानी हो जाता है। हालांकि महिला अधिकारी से पूर्व में जब पूछा गया तो उन्होंने खुद के साथ न्याय न होने की बात कही। लेकिन सवाल विभाग की जिम्मेदारी और भविष्य के कर्णधारों का भी है। उनके साथ न्याय कौन करेगा जब स्वयं मुख्यमंत्री भी दबाव में आकर तबादला रोकने में सहायक बना जायेंगे। शिक्षाविद्ों और शिक्षक संघ का कहना है कि यह प्रकरण नियम विरूद्ध है इसके खिलाफ आवाज उठाई जायेगी। शिक्षक संघ का यह भी कहना है कि एक ओर विभाग में एक्ट के तहत शिक्षकों के तबादले किये जाते हैं तो दूसरी और अधिकारी अपने स्थानांतरण के लिए मुख्यमंत्री से सिफारिश लगाते हैं जो पक्षपातपूर्ण है।
सीएम साहब! उज्ज्वला और आशा में अंतर क्यों?
सीईओ प्रकरण से दो बातें साफ होती है। एक शिक्षा विभाग सिर्फ ट्रांसफर-पोस्टिंग तक सीमित रह गया है, दूसरा विभाग के कारिंदों को छात्रों के भविष्य की कोई फिक्र नही बल्कि अपने हितों की चिंता ज्यादा सताती है। इसीलिए आशा और उज्ज्वला प्रकरण सामने आते हैं। ऐसे सत्ता के शीर्ष पुरूष को जब फैसला लेने हो तो वह जनहित में फैसला करता है न कि व्यक्ति विशेष को देखते हुए। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि जनहित के जगह अपने हित को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा सीईओ प्रकरण में भी देखने को मिला। जब अपने स्थानांतरण रोकने के लिए महिला सीईओ ने मुख्यमंत्री के करीबी को साध कर सीएम पर ऐसा दबाव बनाया कि मुख्यमंत्री भूल गये वह भविष्य के कर्णधारों के साथ अन्याय कर रहे हैं। एक ओर उन्होंने विगत वर्ष स्थानांतरण पर सख्ती दिखाते हुए बुजुर्ग उज्ज्वला को नियमों का पाठ पढ़ाया तो दूसरी ओर उन्होेंने आशा को अभयदान देकर अपने लिए परेशानी खड़ी कर दी। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि मुख्यमंत्री को एक जैसे प्रकरण में दोहरे चरित्र की भूमिका क्यों निभानी पड़ी।