बड़ी खबर: सच शातिर है! …और तरंगों में तैरता अफवाहों का अखबार
देहरादूनः उत्तराखंड की सियासत में पसरी खामोशी की बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगी है। अचानक कर्कस ध्वनी सत्ता के इर्द-गिर्द सुनाई पड़ी। बेसुरी होती इन आवाजों के कोलाहल से जब सत्ता-प्रतिष्ठन डिगे नहीं तो पाखंडी दिमागों का सिजेरियन ऑपरेशन किया गया। दिमागी चीफ-फाड़ के बाद उपजी विशेष प्रकार की सोच को हथियार बनाया गया। जिसके बूते सत्ता-प्रतिष्ठाों को कमजोर करने का षड़यंत्र रचा गया जो अब भी अनवरत जारी है। इन्हीं षड़यंत्रों के तहत अखबार निकाला गया। अफवाहों से भरा अखबार, जिसका न तो कोई आधार और न ही कोई सत्यता है। अफवाहों से मंडित अखबार को इंटरनेट के चोर दरवाजे के जरिये सत्ता के गलियारों में फैलाया गया। तरंगों में तैरते अखबार के टुकड़े में जिस तरह खबर को परोसा गया उससे साफ होता है कि यह मात्र एक छटपटाहट भर है। इंटरनेट की गैलरी में तैरते इस अखबार की खबर का मकसद सिर्फ उस वजूद को जिंदा रखना है जिसके दम पर वर्षों से सत्ता की चासनी को चखा गया। पिछले आधे दशक के करीब सत्ता से बेदखल होने की पीड़ा का ही नतीजा है कि अखबार के जरिये अफवाह फैला कर गुमराह किया जा रहा है।
अफवाह है ऑक्सीजन
उत्तराखंड में इन दिनों मुख्यमंत्री के बदले जाने की खबर आग की तरह फैल रही है। सुनियोजित तरीके से एक खबर को प्लांट किया गया है। जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री को बदलने की बात कही गई है। मुख्यमंत्री को बदले जाने का कारण का कनेक्शन झारखंड से है। जहां हाल ही में भाजपा के खिलाफ जनादेश आया। इस जनादेश को आधार बना कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को टारगेट किया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि मोदी-अमित शाह राज्य में मुख्यमंत्री बदल रहे हैं। लेकिन अखबार की असल सच्चाई कोसों दूर है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह खबर प्रायोजित है। इसका मकसद सिर्फ भ्रम फैलाना है। विश्लेषकों का मानना है कि पहले भी ऐसी प्रायोजित खबरों से सत्ता प्रतिष्ठान की छवि को धूमिल किया गया। प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ एक लाॅबी हमेशा से ही सक्रिय रही है। जो अफवाह फैला कर अस्थिरता पैदा करती है। ऐसी अफवाह सिर्फ उनके लिए ऑक्सीजन का काम करती है।
त्रिवेंद्र और तस्वीर की तासीर
नरेंद्र और त्रिवेंद्र की तस्वीर में एक सोच ने भविष्य झांकने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाई। तस्वीर में चेहरों के भावों को पढ़ा गया और एक सोची-समझी साजिश के तहत भविष्य गढ़ा गया। कर्कस कंठ फिर बेसुरे हो उठे त्रिवेंद्र के तिरस्कार का शिगूफा छोड़ा गया। तरंगों की दुनियां में तस्वीरें दौड़ते-दौड़ते बोझिल होने लगी। लाइक और शेयर की नई परिपाटी ने कई कथानक तैयार किये। विभिन्न अलंकारों का श्रीगणेश हुआ। उपमाओं का दौर चल पड़ा। कई भविष्यवेत्ता अपने-अपने हिसाब से ग्रह-नक्षत्रों का चक्कर लगा आये अपनी गणना बताई। सूर्य के उत्तरायण को शुभ बताया। जैसे-जैसे सूरज दक्षिणी समुद्र को लांघ कर हिमालय की ओर होता चला गया वैसे-वैसे अफवाहों का यह बवंडर भी थमने लगा। लेकिन इंटरनेट पर अपनी खीज उतारने वाली एक जमात अब भी तस्वीर की तासीर को समझ नहीं पाये। वह भूल गये कि तस्वीर से ताज तय नहीं होते।
टारगेट पर टीएसआर क्यों?
प्रदेश की सियासत में क्षेत्रवाद और जातिवाद हमेशा हावी रहा है। लिहाजा सियासत को साधने के लिए जो फाॅर्मूला इजात किया गया उसमें क्षेत्र और जाति को प्राथमिकता दी गई। इन दोनों राजनीतिक तत्वों को आधार बना कर सरकार और संगठनों का संचालन किया गया। अतीत में अगर झांक कर देखें तो साफ होता है कि क्षेत्र और जातिवाद का द्वंद हमेशा रहा जो आज भी बरकरार है। वर्तमान परिदृश्य को अगर देखें तो क्षेत्र और जातिवाद का संतुलन भले ही नजर आता है, लेकिन एक विशेष वर्ग पिछले आधे दशक से सत्ता से दूर होता जा रहा है। दरअसल इस वर्ग विशेष के पास वर्तमान में ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो इनका नेतृत्व कर सके। इसी डर से भयभीत यह वर्ग टीएसआर को टारगेट कर रहा है। ताकि टीएसआर की छवि को धूमिल कर सत्ता में अपने किसी छत्रप की वापसी कराई जा सके और उसकी छत्र छाया में अपने हितों को बरकरार रखा जा सके।
ताकतवर होते त्रिवेंद्र
विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में कई चेहरे आम थे। हर किसी का गणित था कि गढ़वाल नहीं तो कुमाऊं के चाणक्य को मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। लेकिन भ्रष्टाचार के दाग लगे होने से झक सफेद कुर्ता पहनने वाला चहेरा मोदी-शाह की पसंद से कोसों दूर था। तो दूसरा जनादेश से वंचित रह गया। प्रयास खूब हुए लेकिन सेहरा टीएसआर के सर पर बंधा। टीएसआर के मुख्यमंत्री बनने से कई छत्रपों के सपने हमेशा के लिए ओझल हो गये। यही कारण रहा कि सत्तासीन होते ही टीएसआर के खिलाफ सुनियोजित तरीके से मोर्चा खोला गया। दिल्ली से लेकर देहरादून तक टीएसआर के खिलाफ मोर्चाबंदी होती रही, गीत लिखे गये, झांपू की उपमा दी गई। लेकिन टीएसआर टस से मस नहीं हुआ। बल्कि उन्हीं लोगों की घेराबंदी ने टीएसआर की टीआरपी बढा़ दी। टीएसआर मोदी-शाह के और खास हो गये। एक विशेष वर्ग द्वारा चलाई गई मुहिम का असर यह हुआ कि टीएसआर ताकतवर होते चले गये। आलम यह है कि टीएसआर के प्रति प्रदेश के अन्य वर्गों की सहनुभूति पैदा हो गई। यहीं से टीएसआर ताकतवर होते चले गये। सत्ता संभालते ही टीएसआर ने राज्य में हुए तमाम चुनावों में अपनी लोकप्रियता और कठोर प्रशासनिक छवि को भुनाया। जिसका नतीजा यह रहा कि टीएसआर दो उपचुनाव से लेकर लोकसभा और पंचायत चुनावों में सब पर हावी रहे। टीएसआर की सर्वमान्य बनती छवि से एक खास वर्ग खासा चिंतत है। लिहाजा वह टीएसआर के सामने अवरोधक का काम कर रहा है।