September 22, 2024

बड़ा सवालः साल बदले, सत्ता बदली, लेकिन उत्तराखण्ड में नहीं बदली बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की सूरत

देहरादून। साल बदले, सत्ता बदली लेकिन उत्तराखण्ड में बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की सूरत 21 साल बीत जाने के बाद नहीं बदल पाई है। उत्तराखण्ड की जनता पांचवी मर्तबा अपनी सरकार के लिए मतदान कर चुकी है। इस महीने की 10 तारीख को चुनाव के नतीजे भी आ जाएंगे। देर-सबेर प्रदेश को नया मुखिया और नई सरकार भी मिल जाएगी। लेकिन खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था का सवाल 21 साल बाद भी ज्यो का त्यों खड़ा है। और इन सवालों के जवाब कभी सत्ताधारियों के पास नहीं है।

हालांकि उनके पास स्वास्थ्य व्यवस्था की उजली तस्वीर दिखाने के लिए तमाम आंकड़े हर दम मौजूद रहे हैं। लेकिन इन हुक्मरानों को इलाज के अभाव में दम तोड़ती प्रसूताएं कभी नजर नहीं आई।
पौड़ी जिला बदतर स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल बयां करने के लिए काफी है। इस जिले में पिछले 10 महीने में इलाज के अभाव में 12 प्रसूताएं अपनी जान गवां चुकी है। गौर करने वाली बात ये है कि ये आंकड़े खुद स्वास्थ्य विभाग ने पेश किये हैं। पौड़ी वही जिला है जहां सरकार जिला अस्पताल को पीपीपी मोड पर संचालित कर रही है।

स्वास्थ्य व्यवस्था की सूरत को बदलने के नाम पर हुक्मरानों ने प्रदेश के तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में तब्दील कर दिया है। लेकिन सरकार के ये फैसले ‘बंदर कूद’ से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकारी कागजों में भले ही प्रदेश की तमाम स्वास्थ्य केन्द्र उच्चीकृत हो गये हो लेकिन जमीनी हकीकत जस की तस है। ज्यादातर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डाक्टरों की कमी है। वहां ना तो एक्सरे की सुविधा है ना ही जांच की के लिए पैथोलॉजी लैब।

मिसाल के तौर पर पिथौरागढ़ जिले की गणाई गंगोली तहसील को ही ले। यहां पर तकरीबन 40 हजार की आबादी पर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है। साल 2015 में पीएचसी को उच्चीकृत कर सीएचसी बनाया गया तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन यहां को बाशिदों को इसका कोई फायदा नहीं मिला। यहां पर डाक्टरों को 6 पद स्वीकृत है लेकिन सिर्फ तीन डाक्टर कार्यरत है। यहां पर अल्ट्रासाउड, एक्सरे और खून जांच की कोई सुविधा नहीं है। गर्भवती महिलाओं को अल्ट्रासाउंड के लिए अल्मोड़ा या पिथौरागढ़ जाना होता हैं जो यहां से करीब क्रमशः 145 और 110 किमी दूर हैं।

राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 95 फीसदी पद खाली हैं। चमोली, रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले में तो किसी भी सीएचसी में विशेषज्ञ डॉक्टर तैनात नहीं हैं। राज्य में कुल 80 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। जिनमें कुल पांच प्रतिशत ही डॉक्टर तैनात हैं जबकि 95 प्रतिशत पद खाली चल रहे हैं। राज्यभर में सीएचसी में फिजीशियन, सर्जन, एनेस्थीसिया, गाइनोकॉलोजिस्ट आदि के कुल 474 पद मंजूर हैं। लेकिन इसमें से 452 पद खाली हैं। अब इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए पिछले 21 सालों में यहां के हुक्मरानों ने कितना कुछ किया है।

पहाड़ी जिला चम्पावत में अस्पताल में जरूरत का स्टाफ और बुनियादी सहूलितें ना होने से डाक्टर भी खफा है। ‘हिन्दुस्तान’ में छपी खबर के मुताबिक ‘चम्पावत के सरकारी अस्पतालों के हालातों से जनता के बाद अब डाक्टर भी परेशान है।’ अधिकतर स्वास्थ्य केन्द्रों में पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं है। टनकपुर में वेंटिलेटर और एक्सरे मशीने पिछले दो साल से धूल फांक रहे हैं। अस्पताल के सीएमएस के मुताबिक स्पेशलिस्ट की तैनाती ना होने के कारण मशीनों का संचालन नहीं हो पा रहा है।

मैदानी जिले हरिद्वार की बात कर ले यहां हरिद्वार महाकुंभ के लिए सात करोड़ में खरीदी गई एमआरआई मशीन शोपीस बनी हुई है। एक साल का अरसा बीत जाने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग इस मशीन को शुरू नहीं कर पाया है। बताया जा रहा है कि विभाग के पास प्रशिक्षित रेडियोलॉजिस्ट नहीं है।

उत्तराखण्ड में तेरह जिले है। और हर जिले में आवाम की स्वास्थ्य देखभाल करने के लिए तेरह जिला अस्पताल भी हैं। लेकिन ये जिला अस्पताल खुद बीमार और लाचार हैं। राज्य के पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य व्यवस्था के हालात और भी खराब हैं। नतीजतन, वहां के लोगों को हर छोटी-बड़ी बीमारी के इलाज के लिए देहरादून-हल्द्वानी ही आना पड़ता है।


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