नीतीश बनाम तेजस्वी है इस बार का चुनाव! जानिए और कौन-कौन दमदार चेहरे हैं मैदान में

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बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए और तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन के बीच बिछाई जा रही है. इन दोनों प्रमुख चेहरों के अलावा भी कई ऐसे चेहरे और दल हैं, जो बिहार की सियासत में किंगमेकर बनने का सपना संजोय हुए हैं. ऐसे में देखना है कि इस बार बिहार की सियासी बाजी किसके हाथ में लगेगी. 
 

नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए

बिहार में मुख्यमंत्री व जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार के चेहरे के सहारे बीजेपी एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरने की रणनीति अपनाई है. जेपी आंदोलन से निकले नीतीश कुमार एक दौर में लालू यादव के सारथी रहे हैं, लेकिन जार्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया और बाद शरद यादव के साथ मिलकर जेडीयू बनाई और सत्ता हासिल की. नीतीश पिछले 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज हैं और एक बार फिर से सत्ता में वापसी के लिए बेचैन नजर आ रहे हैं.

 ऐसे में नीतीश के नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा जेडीयू, बीजेपी, जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान अवाम मोर्चा और चिराग पासवान की एलजेपी है. हालांकि, एनडीए में सीट शेयरिंग को लेकर अभी तक सहमति नहीं बन सकी है, जिसके चलते चिराग पासवान ने लगातार नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रमक रुख अख्तियार कर रखा है.

तेजस्वी की अगुवाई में महागठबंधन

आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव के कंधों पर है. तेजस्वी यादव इस बार बिहार की सियासी रणभूमि में महागठबंधन की अगुवाई कर रहे हैं. तेजस्वी के साथ कांग्रेस खड़ी है और वामपंथी दल भी सारथी बन चुके हैं. ऐसे में नीतीश को सीधे मैदान में उतरकर ललकार रहे हैं. हालांकि, तेजस्वी यादव को लेकर महागठबंधन में महाभारत मचा है. तेजस्वी के चलते ही जीतनराम मांझी महागठबंधन का साथ छोड़कर एनडीए खेमे में जा चुके हैं और आरएलएसपी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा बागी तेवर अख्तियार किए हुए हैं. ऐसे में तेजस्वी के कंधों पर पिता की विरासत को बचाने के साथ-साथ सत्ता को भी हासिल करने की चुनौती है. 

चिराग के सामने विरासत बचाने की चुनौती

बिहार में दलितों को राजनीतिक विकल्प देने के लिए रामविलास पासवान ने एलजेपी की बुनियाद रखी थी, जिसकी कमान इन दिनों उनके बेटे चिराग पासवान के हाथों में है. चिराग वैसे तो एनडीए का हिस्सा हैं लेकिन साथ होकर भी विरोधी छवि अबतक चिराग ने बरकरार रखी है. कोरोना संकट में चुनाव कराने की बात हो, प्रवासी मजदूरों का मुद्दा हो, सुशांत केस हो- हर जगह चिराग ने जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. चिराग अपनी अलग छवि के तौर पर बिहार में अपनी पहचान बनाने में जुटे हैं. बिहार के युवाओं को जोड़ने के लिए चिराग पासवान ने बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट का नारा दिया है. ऐसे में देखना है कि चिराग पिता की राजनीतिक विरासत को कहां ले जाते हैं. 

उपेंद्र कुशवाहा की डगर कठिन है

आरएलएसपी के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा फिलहाल महागठबंधन के साथ हैं. लेकिन आरजेडी को लेकर आक्रमक हैं. कुशवाहा ने अल्टीमेटम दे रखा है. हालांकि, कभी वो नीतीश कुमार के सबसे करीबी नेताओं में रहे हैं, लेकिन राजनैतिक महत्वाकांक्षा में उन्होंने 2013 में अलग आरएलएसपी गठित कर ली. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश कुमार एनडीए से अलग हुए थे तो उपेंद्र कुशवाहा ने एंट्री मारी थी. उस समय कुशवाहा काराकट सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. मोदी सरकार में मंत्री बने, लेकिन नीतीश की दोबारा एनडीए में वापसी होते ही कुशवाहा साइड लाइन हो गए. 

2019 लोकसभा चुनाव से पहले उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी एनडीए से बाहर हो गई. कुशवाहा आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल हो गए. महागठबंधन में आरजेडी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़े पर जीत नहीं सके. उपेंद्र कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं, जिनकी जनसंख्या बिहार की कुल आबादी का 8 प्रतिशत है. इसी वोट के दम पर वह सियासी बाजी अपने नाम करना चाहते हैं. 

पप्पू यादव किंगमेकर बनने की जुगत में

लालू यादव की उंगली पकड़कर राजनीति सीखने वाले राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव किंगमेकर बनने की जुगत में हैं. पप्पू यादव जन अधिकार पार्टी बनाकर अपना सियासी वजूद पाना चाहते हैं. वो पांच बार सांसद रह चुके हैं. वो 1991, 1996, 1999, 2004 और 2014 में सांसद चुने गए थे. लेकिन साल 2019 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इससे पहले 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 40 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. उनकी पार्टी को तब सिर्फ 2 फीसदी वोट मिला था. इस बार के चुनाव में भी उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ सकती है. क्योंकि पप्पू यादव न तो एनडीए के और न ही महागठबंधन के साथ हैं. 

मुकेश सहनी किसकी नैया लगाएंगे पार

बॉलीवुड में बतौर सेट डिजाइनर काम कर चुके मुकेश सहनी बिहार की राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए बेताब हैं. सहनी दरभंगा जिले के सुपौल गांव के रहने वाले हैं. वो गांव छोड़कर मुंबई भाग गए थे. वहीं नाम और पहचान बनाई. वो मशहूर फिल्म देवदास का सेट बना चुके हैं. वो 2014 में बिहार वापस आए. तब के लोकसभा चुनाव में उन्होंने बीजेपी के लिए कैंपेन किया था. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी वो बीजेपी के लिए प्रचार करते दिखे थे. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने खुद की पार्टी बना ली. नाम रखा विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी). मुकेश साहनी की पार्टी  3 सीटों पर चुनाव लड़ी. लेकिन कहीं भी जीत नहीं मिली. सन ऑफ मल्लाह के नाम से मशहूर सहनी निषाद जाति से आते हैं. महागठबंधन के साथ हैं.

असदुद्दीन ओवैसी की नजर मुस्लिमों पर

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन बिहार चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने के लिए पूरे दमखम के साथ उतर चुकी है. ओवैसी की नजर मुस्लिम वोट बैंक पर है. बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या कुल आबादी का 16.9 फीसदी है. बात चाहे 2014 के लोकसभा चुनाव की करें या फिर 2019 के चुनाव की. दोनों मौके पर मुसलमानों का वोट आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के बीच बंट गया था. अक्टूबर 2019 में उपचुनाव जीतकर एआईएमआईएम ने बिहार की राजनीति में एंट्री मारी थी. तब किशनगंज से कमरूल होडा ने बीजेपी की स्वीटी सिंह को हराया था. बिहार में एआईएमआईएम की एंट्री से आरजेडी और कांग्रेस को बड़ा नुकसान होने की संभावना जताई जा रही है, क्योंकि सीमांचल में ओवैसी ने अच्छा खासा जनाधार हासिल किया है. 

जीतन राम मांझी फिर नीतीश के सहारे

हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रमुख जीतन राम मांझी बिहार के सीएम रह चुके हैं. 1980 में कांग्रेस से उन्होंने अपना सियासी सफर शुरू किया था और जनता दल, आरजेडी और जेडीयू के संग रहते हुए 2015 में अपनी पार्टी का गठन किया था. मांझी अनुसूचित जाति से आते हैं और वो नीतीश सरकार के संग मैदान में उतरने जा रहे हैं. 

मांझी पहली बार चर्चा में 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद आए थे. तब 2014 के चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था. जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया गया था.

हालांकि बाद में जब नीतीश ने उन्हें पद से हटने को कहा, तब उन्होंने मना कर दिया. फरवरी 2015 में फ्लोर टेस्ट में मांझी बहुमत साबित नहीं कर पाए. पद छोड़ना पड़ा. मांझी ने 2015 में ही हम पार्टी का गठन किया. 2018 में वो महागठबंधन में गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. पिछले महीने वो महागठबंधन छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए हैं. 

चुनावी परिदृश्य से गायब हैं प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर भी जेडीयू छोड़ने के बाद से नीतीश पर हमलावर हैं. अपने संगठन ‘यूथ इन पॉलिटिक्स’ के जरिए वह बिहार में बेरोजगारी, उद्योगों की बदहाली, युवाओं की समस्याओं को उठाकर युवा आबादी में संवाद कायम करने की कोशिश कर रहे हैं. वे सीधे तौर पर अभी राजनीतिक लड़ाई में तो नहीं कूदे हैं लेकिन उनके हर सवाल और अभियान के निशाने पर नीतीश कुमार ही दिखते हैं. हालांकि, चुनावी माहौल में वो कहीं नजर नहीं आ रहे हैं.

कन्हैया कुमार अब तेजस्वी के संग

लोकसभा चुनाव हारने के बाद से सीपीआई के कन्हैया कुमार बिहार में लगातार जनयात्राएं कर रहे हैं. जेएनयू छात्र रहे कन्हैया नीतीश सरकार के 15 साल में बिहार की बदहाली का मुद्दा जनता के बीच उठा रहे हैं. आरजेडी और वामपंथी दलों के बीच गठजोड़ की बातचीत चल रही है ऐसे में तेजस्वी और कन्हैया दोनों एक मंच पर चुनाव प्रचार करते भी दिख सकते हैं. कन्हैया एक अच्छे वक्ता हैं और युवाओं को आकर्षित करने में उनका अभियान महागठबंधन के लिए कारगर भी हो सकता है.