छला पहाड़,निकला सत्र !
इन्द्रेश मैखुरी
यह शीर्षक दरअसल एक प्रचलित मुहावरे से प्रेरित है। वह लोकप्रिय मुहावरा है- खोदा पहाड़, निकली चुहिया। बतरसिया लोग इसे आगे बढ़ाते हुए यह भी जोड़ देते थे-वो भी मरी हुई. तब पूरा मुहावरा यूं हो जाता-खोदा पहाड़, निकली चुहिया, वो भी मरी हुई!
उत्तराखंड में विधानसभा का सत्र भी पहाड़ खोद कर, चुहिया निकलने जैसा ही है। महीनों चर्चा होगी कि विधानसभा का सत्र होगा। मीडिया खबर पकाएगा कि देहरादून में होगा सत्र या गैरसैण में होगा? फिर कुछ दिन तक सत्ता और विपक्ष की नूराकुश्ती देहरादून बनाम गैरसैण चलेगी! तब धीरे से कोई कह देगा कि गैरसैण में बहुत ठंड है, गर्मी है तो यात्रा सीजन है आदि, आदि और पक्ष-विपक्ष खुशी-खुशी देहरादून में सत्र करेंगे। दोनों के चेहरे पर यह भाव होगा कि चलो पहाड़ चढ़ने से तो बचे!
दोनों से ही गैरसैण पर सवाल पूछिये तो वे तुरंत कहेंगे- हमारी पार्टी गैरसैण के लिए प्रतिबद्ध हैं। गज़ब प्रतिबद्धता है, हुजूर आपकी! जहां आप चौबीसों घंटे-सातों दिन रह रहे हो, वहां के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं आप और जहां जाने के नाम पर आपका कलेजा मुंह को आ जाता है, वहां के लिए आप प्रतिबद्ध हैं। यदि यही प्रतिबद्धता है तो ऐसे प्रतिबद्धता की क्षय हो!
और देहरादून में सत्र करते हो तो वहां कौन सा कद्दू पे तीर मारते हो? सत्र शुरू बाद में होता है और खत्म पहले हो जाता है। पंद्रह-बीस दिन से ज्यादा सत्र होने की खबर चलेगी और सत्र बेचारे का चौबीस घंटे के भीतर ही अवसान हो जाएगा! कई बार मन में विचार आता है कि जब राज्य का ही अवसान हुआ जाता है तो सत्र के अवसान का क्या दुख? जिस विधानसभा के अध्यक्ष, राज्य के बेरोजगारों के हितों पर कुठाराघात करते हुए, पिछले दरवाजे से अपने-अपनों को नियुक्ति देते हों, फिर उसे अपना विशेषाधिकार बताते हों और शान से तब भी “माननीय” कहलाते हों, मंत्री पद पर इठलाते हों, उसका नैतिक अवसान तो पहले ही हो चुका, सत्र का अवसान तो फौरी बात है!
उत्तराखंड विधानसभा का शीतकालीन सत्र भी 29 नवंबर को शुरू हुआ और 30 नवंबर बीतते-न बीतते उसका अवसान हो गया। 30 नवंबर को तो सत्र एक घंटा बारह मिनट ही चला। ऐसा लगा कि नवंबर के महीने और उत्तराखंड विधानसभा में होड़ थी कि किसका अवसान पहले होगा और नवंबर के महीने को शिकस्त देते हुए विधानसभा सत्र अवसान की चैंपियन बनी!
मीडिया में तो घोषणा थी कि सत्र 29 नवंबर से 05 दिसंबर तक चलेगा। उसी दिन लग रहा था कि जिन विधायकों की पहाड़ चढ़ने के ख्याल भर से कंपकंपी छूट रही थी, वे हफ्ता भर कैसे गुजारेंगे विधानसभा में?
और क्या तीर मारा इन दो दिनों में? आंदोलनकारियों के क्षैतिज आरक्षण का कानून पेश किए जाने की चर्चा तो हुई पर पास तो नहीं हुआ। सरकार सेवाओं में महिलाओं को क्षैतिज आरक्षण का कानून पास हुआ, कैसा हुआ, यह तो विधेयक देख कर पता चलेगा। लोग जमीन बचाने का कानून की मांग कर रहे हैं पर उस पर तो अभी कमेटी का चुइंग गम सरकार चुभला ही रही है।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी बता रहे हैं कि धर्मांतरण के खिलाफ कानून पास करना सबसे बड़ी उपलब्धि है। कमाल है देश में और राज्य में हिन्दू धर्म का प्रचंड झंडाबरदार डबल इंजन लगा है और तब भी धर्मांतरण रोकने की नौबत आ रही है। हिंदू हितैषी होने का दम भरने वाले डबल इंजन ने यदि इतना ही हिंदू हित कर दिया होता तो लोगों को तो टूट-टूट करके हिंदू धर्म अपनाना चाहिए था।
हकीकत यह है जिनका रोजगार, यूकेएसएसएससी से लेकर विधानसभा से भर्ती घोटालों में लूटा गया, वे भी हिंदू ही थे, जिन महिलाओं से जोशीमठ के हेलंग में घास छीनी, जिस अंकिता भण्डारी की जान गयी, वे उसी धर्म को मानने वाली थी, जिससे धर्मांतरण रोकने के कानून को धामी जी सबसे बड़ी उपलब्धि ठहरा रहे हैं। हकीकत यह है कि धर्म की राजनीति मुट्ठीभर लोगों को सत्ता तो दिला सकती है, लेकिन आम जनता की बहुसंख्या को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, अधिकार, न्याय नहीं दिलवा सकती!
और धर्मांतरण कानून पर छाती चौड़ी करने वाले धामी साहब, इस राज्य में लगातार दलित उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं, उनके बारे में कुछ कहेंगे, उन पर भी तो मुंह खोलिए! 1 सितंबर को अल्मोड़ा में जगदीश चंद्र की हत्या हुई, 4 सितंबर को नाबालिग दलित लड़की के साथ बलात्कार हुआ, 24 नवंबर को पिथौरागढ़ में चनर राम का शव मिला और इस हत्या का विरोध करने वालों के खिलाफ ही मुकदमा कर दिया गया। क्या विधानसभा में किसी ने यह मसला उठाया? सत्तापक्ष ने इस पर खामोशी बरती पर विपक्ष के लिए भी क्या दलित उत्पीड़न मसला नहीं है? सवर्ण विधायकों के बोलने में उनकी जातीय पक्षधरता आड़े आई होगी पर दलित विधायक क्यूँ खामोश रहे?
यह मामला भी इस बात का उदाहरण है कि व्यापक सामाजिक महत्व के मसलों पर विधानसभा में बैठने वालों की खामोशी ही सबसे बड़ा जवाब है!
गैरसैण में सत्र न करने के लिए ठंड का बहाना यूं बनाया गया, जैसे कि कोई आधे महीने का सत्र चलना हो! और फर्ज कीजिये कि दस-पंद्रह दिन का सत्र हो भी जाये तो भी सर्द रातों में खुले आसमान के तले तो मंत्री-विधायकों को रहना नहीं था ना! राजसी सुविधाओं में काहे कि ठंड और कौन सी गर्मी?
अध्यक्ष महोदया कह रही हैं कि इससे ज्यादा का बिजनेस ही नहीं था यानि काम-धाम ही नहीं था!
जिस राज्य की विधानसभा बिजनेस विहीन यानि काम-धाम से मुक्त हो तो वहाँ सरकार-सत्ता से ज्यादा काम की अपेक्षा भी लोगों को नहीं रखनी चाहिए. इसलिए अच्छा किया सरकार और विधायक गणों कि दो दिन के लिए गैरसैण नहीं आए!
बिजनेस यानि काम-धाम कुछ था नहीं, खामखां साकणीधार की चढ़ाई चढ़ते ही तुम्हारा बरमण्ड रींगना था, तुमको उंद-उब होना था और ज्यादा रींग लगने से उल्टी-सुल्टी भी होती है बल पहाड़ में तो !
दो दिन के लिए इतना कष्ट क्या करना बल! देहरादून में तो विधानसभा में बिजनेस नहीं होगा तो बाहर कुछ जमीन,खनन,शराब से लेकर डिग्री बेचने तक के तमाम बिजनेस हैं! दावत होगी, मॉल घूमेंगे और भी बड़े लोग तो क्या-क्या नहीं करते होंगे! क्या धरा है, उस निर्भगी पहाड़ में कि वहां जाओ! देहारादून में ही मौज मनाओं, विधानसभा में बिजनेस हो न हो, तुम कमाओ-खाओ!
पहाड़ और पहाड़ियों का क्या है, वो तो जैसे हैं, वैसे हैं ही, उनको तुम्हारे कुछ न करने से भी तुमसे कोई शिकायत नहीं है तो फिर और चाहिए ही क्या!