September 22, 2024

साहित्यकाश का अनाम कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

प्रकृति को अपने सुख-दु:ख की सहचरी बनाकर जीवन पथ में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों की चट्टानों पर काव्य प्रसून खिलाने वाली कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने प्रकृति के असीम सौंदर्य के बीच खेलतु हुए अपना बचपन बिताया था। यही कारण है कि इनके बालपन पर अपनी अमिट छाप छोडऩे वाली प्रकृति ही इनकी कविता की प्रेरणा-स्रोत बनी।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा उडामांडा में हुई। मिडिल स्कूल नागनाथ से व पौड़ी से हाईस्कूल पास करने के बाद इण्टर की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण की। सन् 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. में प्रवेश किया लेकिन वहां वे अस्वस्थ रहने लगे। दिन-प्रतिदिन गिरते हुए स्वास्थ्य ने इन्हें घर वापस आने पर मजबूर कर दिया। घर आकर इन्होंने अगस्त्यमुनि हाई स्कूल में प्राचार्य का पदभार संभाल लिया। पर वहां भी वे खुश न रह सके। इन्हीं मानसिक उलझनों एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की वजह से उन्होंने सन् 1941 में इस पद से त्याग पत्र दे दिया। स्वास्थ्य और बिगड़ता जा रहा था। अस्वस्थता में मंदाकिनी के दायी और भीरी के पास पवालिया को अपना स्थाई निवास बना लिया। अस्वस्थता में भी इन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। एक हजार के लगभग कविताएं, छिटपुट कहानियां, निबंध आदि इन्होंने 28 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य की विरासत को दिया। अभी तक 250 के लगभग कविताएं ही प्रकाशित हुई हैं। कवि के अभिन्न मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने इनकी कुछ कविताओं का प्रकाशन छठवें दशक में किया। इनकी प्रमुख पुस्तकें, मवन्त का कवि, जीत, गीत माधवी, मेधनंदनी, प्रणयनि, कंकड-पत्थर, पयस्विनी, विराट ज्योति है। वर्तमान में सभी पुस्तकें अप्राप्त हैं। 239 कविताएं चन्द्रकुंवर बत्र्वाल की कविताएं नाम से डॉ. उमाशंकर सतीश ने संकलित की है, जो कि सरस्वती प्रेस इलाहाबाद ने प्रकाशित की है। विद्वान प्रो. पी.सी. जोशी ने इनकी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी किया, जिसे विश्व साहित्य में खूब सराहा गया। जीवन की विभिन्न उलझनों से जूझते हुए प्रकृति के विविध रूपों को करुणा एवं प्रेम से स्पंदित करके उन्हें अपनी कविता यात्रा का सच्चा साथी बनाता हुआ कवि अविवाहित ही 24 सितम्बर, 1949 को रात्रि में अपनी इहलीला संवरण कर दिया। कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल प्रकृति से गहरे रूप से जुड़े हैं। उनके काव्य में छायावाद व छायावादोत्तर कविता दोनों की प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। उनके गीतों में सुख के नंदन वन में विचरने का आनंद भी है और दुख की अंधेरी रात में झरी ओंस की व्यथा-कथा भी है।

कभी कवि प्राची से झरने वाली अंतहीन आशा से आशान्वित होता दिखाई देता है, तो, कभी निराशा का गहरा अंधकार उसे भाग्यवादी बना देता है। उनके काव्य में संयोग के सुखद क्षणों की महक भी है और विरह की दारुण स्थिति की कसक भी। कवि का मन कभी करुणा से आप्लावित होकर प्रकृति को भी उससे सराबोर कर देता है, और कभी जीवन के प्रति वितृष्णा से भर उठता है। जब कभी भी भीतर का कोलाहल उसे बहुत व्यथित कर देता है तो वह शांति की तलाश में प्रकृति की गोद में दुबक जाना चाहता है। तत्कालीन कविता की स्वच्छन्दतावादी प्रकृति से बत्र्वाल जी की कविता भी अछूती नहीं रही। उनकी सूक्ष्म दृष्टि ने प्रकृति को बहुत नजदीक से देखा और छुआ है। कवि ने श्वेत केशों वाले तरुण तपस्वी हिमालय के इर्द-गिर्द सुशोभित वन पंक्तियों के वासी कफ्फू को गीतों का मंगलघट लेकर क्षण-भंगुर जीवन को स्वर्ग बनाते देखा है।
चन्द्रकुंवर
बर्त्वाल के काव्य में प्रेम एवं करुणा की मंदाकिनी सतत प्रवाहमान है। वे प्रेम को ‘सुधा पिलाने वाला देवता मानते हैं। इसीलिए वे प्रेम की उस अमरपुरी में रहना चाहते हैं जहां रहने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं उनका कहना है- जीवन का है अंत प्रेम का अंत नहीं। कल्प-वृक्ष के लिए शिशिर हेमंत नहीं। वह धनीभूत हुई पीड़ा ही तो है जो बदली बन, जीवन मरु पर बरसकर उसे हरा-भरा कर देती है। इसीलिए महादेवी वर्मा ने भी नीर भरी दु:ख की बदली बन रजकण की तरह बरसकर नव जीवन अंकुर के रूप में फूटने की बात कही है। इसी पीड़ा की चिलमन से झांकता कवि भी बरबस कह उठता है।

जिन पर मेघों के, नयन गिरे, वे सबके-सब हो गए हरे।

बर्त्वाल जी की कविताओं में तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का भी चित्रण हुआ है। भारतीय जनता में आजादी के लिए क्रांति की लहर जोरों पर चल पड़ी थी। साहित्यकार भी लेखनी के माध्यम से जनता को उद्बोधित कर रहे थे। बत्र्वाल जी भी जयवान, नवप्रभात, नवयुग आदि कविताओं के माध्यम से नए युग को आमंत्रण देते हैं। ‘मैकाले के खिलौने’ रामनाम की गोलियों’ आदि कविताएं समाज के कुछ खास वर्गों के आडम्बरपूर्ण जीवन पर तीखा प्रहार करती है। कवि की अनुभूति उनके काव्य में सहज रूप से अभिव्यक्त हुई है। उनकी भाषा में क्लिष्टता नहीं वरन् एक सहज प्रवाह है। भावानुकूलता उनकी काव्य भाषा की एक प्रमुख विशेषता है। विगत कुछ वर्षों से चन्द्रकुंवर बत्र्वाल जन्म-तिथि को उत्तराखण्ड तथा दिल्ली में समारोहपूर्वक मनाया गया, जो कि एक हर्ष का विषय है। सन् 1991 में अनिकेत तथा क्षेत्र प्रचार कार्यालय द्वारा अगस्त मुनि तथा पंवालिया में 1992 में प्रयास द्वारा गोपेश्वर में, 1993 में पौड़ी, आदिबद्री, देहरादून, कोटद्वार तथा पर्वतवाणी द्वारा दिल्ली में कवि के कृतित्व पर परिचर्चा हुई। 1995 मे मचकोटी तथा श्रीनगर (गढ़वाल) में तथा इस वर्ष पुन: अगस्त्यमुनि में कवि की जयंती मनाई जानी हिन्दी साहित्य के अनाम नक्षत्र का म्मान होगा। साथ ही यह जरूरी होगा कि पाठ्यपुस्तकों में जिन छायावादी, प्रगतिवादी या अन्य कवियों को जगह मिली है, उनके सम्मुख चन्द्रकुंवर बत्र्वाल-उपेक्षित क्यों हैं?

– बीना बेंजवाल


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

WP2Social Auto Publish Powered By : XYZScripts.com