कोरोना संकटः लॉकडाउन के 100 दिन- क्या खोया, क्या पाया ?

LABOUR
डॉ. ललित कुमार

हम इस समय कोरोना लॉकडाउन के 100 दिन की दहलीज को पार कर चुके हैं। इस दहलीज सेजब हम लॉकडाउन के अतीत पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि पूरे विश्व में कोरोना का कहर अभी भी लगातार जारी है। जहां दुनिया के 215 देश कोरोना संक्रमितहो चुके हैं, वहीं सभी देशों के लिए यह दौर एक बेहद चुनौतीपूर्ण है। हर देश अपने-अपने तरीके से इससे बचने के लिए वैक्सीन की खोज करने में लगे हैं, लेकिन अभी तक इसके कोई भी ठोस प्रमाण निकलकर सामने नहीं आए, ताकि गर्व से कहा जा सके कि हमने इसका इलाज खोज निकाला है।

कोरोना महामारी जहां पूरे विश्व में अपना कहर बरपा रही है, वहीं प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ से यह मानवता को सचेत करने का भी मौका दे रही है। इस महामारी में प्राकृतिक आपदाओं का लगातार एक साथ आना चिंता का विषय तो है ही, लेकिन हमारे लिए एक सीख भी है, जो हमें संकेत कर रही है कि अगर हम अभी न संभले तो कभी नहीं संभल सकते। इस विषय पर लिखने से पहले मेरे मन में बहुत से विचार आये। जिनके सवालों के जवाब ढूंढ पाना मुश्किल हो गया था कि आखिर कैसे अचानक दुनिया की अर्थव्यवस्था जहां अपनी गति से आगे बढ़ रही थी, वहीं उस पर लॉकडाउन की ऐसी चोट पड़ी कि वह एकदम से धराशाही हो गई।

जब चीन के वुहान शहर से शुरू हुए कोरोना वायरस की ख़बरों को देखते- सुनते और पढ़ते थे तो लगता था कि यह कोई छोटी-मोटी बीमारी होगी, जो जल्दी ही नियंत्रण में कर ली जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे इस वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू किया तो लगा कि ये बीमारी नियंत्रण के बाहर है। लेकिन अब यह बीमारी पूरे भारत में अपने पैर पसार चुकी है। 30 जून 2020 के अपराह्न 7.30 बजे तक भारत में 5 लाख 85 हज़ारसे अधिक लोग संक्रमित हुए और मौतों की संख्या का आंकड़ा 17 हज़ार के पार जा पहुंचा।

Worldometer वेबसाइट के आंकड़ें बताते हैं कि कोरोना संक्रमित देशों की सूची में टॉप पर क्रमशः अमेरिका, ब्राज़ील, रूस और भारत हैं। अमेरिका और ब्राज़ील देशों की हालात बाकी दोनों देशों की तुलना में बहुत खराब है। भारत में 24 मार्च 2020 से लगने वाले लॉकडाउनके चार चरणों के साथ ही अनलॉक 1.0 के 100 दिन 4 जुलाई को पूरे हुए। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर हमने लॉकडाउन और अनलॉक के दौरान अब तक क्या खोया और पाया! भारत में संपूर्ण लॉकडाउन का असर पूरे देश में देखने को मिला, जिसे आंकड़ों के ज़रिए समझने की ज़रूरत है कि भारत में लॉकडाउन के दौरान जो मृत्यु दर 15 अप्रैल 2020 को 3.41 फीसदी थी, वहीं 01 जून 2020 तक घटकर वह 2.82 फीसदी तक आ गई। लेकिन इसे अगर पूरी दुनिया के हिसाब से समझा जाये, तो यह प्रति एक लाख संक्रमण पर मृत्यु दर 5.97 फीसदी रही, वहीं फ्रांस में 18.9 फीसदी, इटली में 14.3 फीसदी, यूके में 14.12 फीसदी, स्पेन में 9.78 फीसदी और जबकि बेल्जियम में 16.21 फीसदी लॉकडाउन के दौरान हुई। प्रथम चरण के लॉकडाउन में भारत में मरीजों के ठीक होने की दर 7.1 फीसदी थी, जबकि वहीं चौथे चरण में यह दर 41.61 फीसदी हो गई यानी ये आंकडे कहीं न कहीं देश के प्रति एक आत्मविश्वास पैदा करने वाले रहे हैं।

जब देश में लॉकडाउन को चार चरणों में बांटा गया तो इसके पहले और चौथे चरण के दौरान भारत की सबसे बदहाल तस्वीर ऐसे समय में उभरकर सामने आई, जब करोड़ों श्रमिक अपनी बदहाली को कन्धों पर ढोकर घरों की ओर निकल पड़े थे। जिसमें पहला लॉकडाउन 25 मार्च से 14 अप्रैल 2020 तक रहा, जिसमें आवश्यक वस्तुओं की सेवाओं को छोड़कर पूरा देश पूरी तरह से बंद रहा। दूसरा लॉकडाउन 15 अप्रैल से 3 मई 2020 तक रहा, जिसमें संक्रमित मामलों के आधार पर देश को तीन जोन यानी रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन में बांटा गया। तीसरा लॉकडाउन 4 मई से 17 मई तक रहा, जिसमें जोन के हिसाब से दुकानें खुली और कुछ रियायतें भी दी गई।

जिसमें जान के साथ जहान को भी प्राथमिक दी गई। चौथा और अंतिम लॉकडाउन 18 मई से 31 मई तक रहा, जिसमें स्कूल, शोपिंग मॉल, धार्मिक स्थल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेल को छोड़कर हर किसी क्षेत्र में छूट दी गई। विश्व में सबसे ज्यादा लॉकडाउन लगाने वाले देशों की सूची में इटली पहले नंबर पर आता हैं। जहां 10 मार्च से 03 मई तक लॉकडाउन लगा रहा, लेकिन इटली में 31 मई तक 33 हज़ार 354 मौतों हुई, जिसमें 2 लाख 32 हज़ार 979 लोग संक्रमित हुए। वहीं भारत में 31 मई तक 5408 मौतें हुई और 01 लाख 90 हज़ार 609 लोग संक्रमित हुए। सबसे लंबा लॉकडाउन लगाने वाले शहरों में फिलीपिंस की राजधानी मनीला का नाम आता है। जहां कुल मौतों में 73 फीसदी अकेले मनीला शहर में हुई। मनीला में लॉकडाउन जबकि 76 दिनों तक चला।

भारत का आलम ये है कि पिछले 01 जून से 01 जुलाई 2020 तक के बीच कोरोना मरीजों की संख्या 5 गुना से ज्यादा बढ़ी है। देश में अगर ऐसे ही हालात रहे तो कोरोना संक्रमितों का आंकड़ाकहां तक पहुचेगा,कुछ कहा नहीं जा सकता। लॉकडाउन के चार चरण खत्म होने के बाद भारत में अनलॉक का पहला चरण 01 जून 2020 से लागू किया गया। अनलॉक का निर्णय ऐसे समय में लिया गया,जब देश में बढ़ती बेरोजगारी के साथ देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने और बाज़ारों में दुकानों को अल्टरनेटिव तरीके से खोलने का प्रयास किया गया यानी अनलॉक का मुख्य आधार देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से गति देना रहा।

जब लॉकडाउन था तो यह व्यवस्था पूरी तरह से धराशाही थी लेकिन अब फिर से इसको गति देने का काम अनलॉक करेगा। वहीं देश के सामने सबसे बड़ी चिंता कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में होने वाली बढ़ोतरी को लेकर भी है। जहां संपूर्ण लॉकडाउन के बाद से संक्रमित मरीजों की संख्या का ग्राफ तेजी से बढ़ा है, जो कि एक चिंता का विषय है। अनलॉक1.0 की पूरी प्रक्रिया संपूर्ण लॉकडाउन से एकदम भिन्न थी। वह रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक था। जिसमें दिन के समय बाज़ार, मॉल और परिवहन सुविधाओं के साथ सामाजिक दूरी को ध्यान में रखकर आने जाने की छूट दी गई।

देश में कोरोना वायरस के मामलों की बढ़ती रफ्तार के बीच अब 01 जुलाई 2020 से अनलॉक 2.0 की शुरुआत हो चुकी है। केंद्र सरकार के दिशा निर्देश के अनुसार ये फेज़ 01 जुलाई से लेकर 31 जुलाई तक चलेगा। करीब चार महीने तक देश में लॉकडाउन रहा और उसके बाद फेज़ के हिसाब से देश को अनलॉक किया जा रहा है। अनलॉक 1.0 में काफी गतिविधियों में छूट मिली थी, जिसके बाद अब अनलॉक 2.0 में इसे बढ़ाया गया है। अब रात को 10 बजे से सुबह 5 बजे तक नाइट कर्फ्यू रहेगा। पहले ये रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक था। अनलॉक 2.0 में फ्लाइट और ट्रेनों की संख्या बढ़ाई जाएगी, दुकानों में 5 लोग से ज्यादा भी जुट सकते हैं लेकिन इसके लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख्याल रखना होगा, 15 जुलाई से केंद्र और राज्य सरकारों के ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में कामकाज शुरू हो जायेगा। स्कूल-कॉलेज 31 जुलाई तक बंद रहेंगे। साथ ही मेट्रो रेल, सिनेमा हॉल्स, जिम, स्वीमिंग पूल, एंटरटेनमेंट पार्क, थिएटर, ऑडिटोरियम और असेंबली हॉल ये सब बंद रहेंगे।

भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर फिच, क्रिसिल और आरबीआई संस्थाओं का ताज़ा अनुमान है कि वित्त वर्ष 2020-21 में यह माइनस में जा सकती है। भारत के जीडीपी की ग्रोथ रेट जिन राज्यों में 60 फीसदी है, वे राज्य रेड और ऑरेंज जोन में रहे। वहां पर लॉकडाउन के सख्ती की वजह से कारोबार पूरी तरह से ठप रहा, इसलिए ऐसे में उन राज्यों की ग्रोथ रेट को पटरी पर वापस लाना पहले की अपेक्षा थोड़ा मुश्किल होगा।

अब आइये नज़र डालते हैं, विश्व में लॉकडाउन नहीं लगाने वाले देशों पर, जहां अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर से गुजरी है-

  • अमेरिका– अमेरिका में 30 जून 2020 तक 27 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित और 01 लाख 29 हज़ार से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी हैं, जोकि कोरोना संक्रमित देशों की सूची में पहले नंबर पर आता है। यहाँ लॉकडाउन को आंशिक रूप से लगाया गया। लोगों की यहां जान भले ही न बचाई जा सकी हो लेकिन तमाम रेटिंग एजेंसी अमेरिका की जीडीपी -5.9 फीसदी रहने का अनुमान लगा रही है।
  • ब्राज़ील-ब्राज़ील में 30 जून 2020 तक 13 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हुए और 58 हज़ार से अधिक मौतें अब तक हो चुकी हैं। ब्राज़ील की सरकार हमेशा से लॉकडाउन के खिलाफ रही है, जो कोरोना संक्रमित देशों की सूची में दूसरे नंबर पर आता है। ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था इस वक़्त सबसे ख़राब दौर में है, जहां 4.7 फीसदी की गिरावट आने का अनुमान है, जो कि 100 सालों की सबसे बुरी अर्थव्यवस्था साबित होगी।
  • स्वीडन- स्वीडन ने अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के चक्कर में लॉकडाउन नहीं लगाया। देश में कोई पाबन्दी भी नहीं लगायी। साथ ही मैन्युफैक्चरिंग और इंडस्ट्री सेक्टर भी बंद नहीं किए। इसलिए वहां के हालात काबू में नहीं आ सके। स्वीडन के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां का निर्यात 10 फीसदी गिरा। जिसके कारण वर्ष 2020 के आउटपुट में गिरावट आएगी। स्वीडन की आबादी के हिसाब से यहां संक्रमित लोगों की संख्या और मौतों का आंकड़ा बेहद डराने वाला रहा है।
  • जापान- जापान में लोगों के आने जाने के लिए कोई पाबन्दी नहीं लगायी गई। यहाँ की अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही। होटल, मॉल और रेस्तरां खुले रहे। लोगों की आवाजाही पर नजर नहीं रखी गई। यहाँ हालात जब बेकाबू हुए तो देश के प्रधानमंत्री को आनन-फानन में इमरजेंसी लगानी पड़ी। लेकिन अर्थव्यवस्था में तेजी से गिरावट देखी गई। जापान में निवेश कमजोर हुआ तो यहां का आयात भी गिरा। जिसके कारण पीएम ने एक ख़राब डॉलर का आर्थिक पैकेज दिया, यानी फिर भी जापान की अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर में है।
  • चीन- चीन का लॉकडाउन वुहान शहर पर केंद्रित रहा ताकि चीन की अर्थव्यवस्था कमजोर न हो, वर्ष 1952 से चीन को दुनिया का ग्रोथ इंजन कहा गया, लेकिन कोरोना के बावजूद पहली बार चीन की तिमाही ग्रोथ रेट माइनस में गई यानी जीडीपी में 6.8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
  • भारत फिर भी इन देशों की अपेक्षा जान बचाने में कामयाब तो रहा। लेकिन अर्थव्यवस्था कोई भी देश नहीं बचा पाया। भारत पर लॉकडाउन की मार सबसे बुरे दौर से गुजरी है। जिस वजह से चारों ओर मायूसी छाई रही। सड़कें सूनी, बाज़ारों की रोनक एक तरीके से अँधेरे में तब्दील हो गई साथ ही देश की अर्थव्यवस्था से लेकर कृषि, शिक्षण संस्थान, रोजगार, पर्यटन, चिकित्सा, पर्यावरण और जातीय व्यवस्था तक पर इसका असर देखा गया। अब इसके कुछ विविध आयामों को बिन्दुवार समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर कहां लॉकडाउन से नुकसान हुआ और कहां फ़ायदा हुआ-
A view shows almost empty roads before the start of the lockdown by West Bengal state government to limit the spreading of coronavirus disease (COVID-19), in Kolkata, India March 23, 2020. REUTERS/Rupak De Chowdhuri

अर्थव्यवस्था- कोरोना के चलते जो हालात अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में देखे गये, उसने देश के सामने कई गंभीर चुनौती खड़ी की। कोरोना काल में पूरे देश का सिस्टम धराशाही हुआ तो लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। यानी इस दौर में देश की जनता के सामने एक साथ कई संकट आये। जिसके कारण देश का गरीब मजदूर और किसान बहुत दुखी हुआ। साथ ही देश के कामगार तबकों पर लॉकडाउन की ऐसी मार पड़ी कि काम धंधे सब बंद होने से उन्हें अपने घरों की ओर हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके पलायन करना पड़ा। जिस वजह से देशके गरीब श्रमिकों की मौत रास्ते में ही हो हुई। कोरोना वायरस से 30 जून 2020 के अपराह्न 7.30 बजे तक विश्व में 01 करोड़ 57 लाख से अधिक लोग संक्रमित हुए। जिसमें 50 लाख 72 हज़ार से ज्यादा लोगअपनी जान गवां चुके हैं। भारत में भी अब तक 5 लाख 85 हज़ार से अधिक मरीजों की पुष्टि हो चुकी है। जिसमें 17 हज़ार 410 लोग अपनी जान गवां चुके हैं। हमने देशव्यापी चार लॉकडाउन का सामना किया और अब हम अनलॉक1.0 और 2.0 के दौर में हैं, लेकिन अनलॉक के कारण देश की अर्थव्यवस्था में थोड़े बहुत सुधार होने के संकेत जरूर  मिल सकते हैं।

कृषि- देश में कोरोना का संकट ऐसे समय में आया, जब देश में रबी की फसल कड़ी थी यानी भारत का किसान पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था और फिर लॉकडाउन के कारण खेतों में खड़ी फसल सही समय पर मंडी में नहीं पहुंच पायी। इसलिए कोरोना महामारी किसानों के लिए एक नई मुसीबत बनाकर उभरी है। लॉकडाउन की वजह से देश का खुदरा बाज़ार, शोपिंग मॉल और कुटीर उद्योग से लेकर बड़े औद्योगिक क्षेत्र पर कोरोना का असर देखा गया। किसानों की परेशानी को समझते हुए केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के तीसरे चरण में कुछ छूट दी गई ताकि किसानों की फसल सही समय पर मंडी में पहुंच सके। सरकार द्वारा मंडी, खरीद एजेंसियों, खेतों से जुड़े कामकाज और भाड़े पर कृषि संबंधित सामान को अंतरराज्यीय परिवहन द्वारा लॉकडाउन से मुक्त करा दिया गया। केंद्र सरकार ने किसानों की परेशानी को देखते हुए मोबाइल गवर्नेंस की दिशा में ‘किसान रथ मोबाइल ऐप’ के ज़रिए एक पहल शुरू की। जिसमें किसानों को मंडी भाव सहित किराये पर परिवहन सुविधा के लाभ इस ऐप के ज़रिए मिला। 31 मई के बाद से देश में अनलॉक 1.0 और अब अनलॉक 2.0 के तहत कृषि बाज़ार व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन पिछले कुछ सालों में कृषि विकास दर तीन फीसदी से कम रही है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए अब 15 फीसदी कृषि विकास दर की जरूरत होगी जो असंभव है। हकीकत यह है कि डीजल और उर्वरकों के महंगे होने से कृषि लागत बढ़ी है। आय के अभाव में ग्रामीण मांग लगातार कमजोर बनी हुई है। इसका अर्थव्यवस्था पर चैतरफा असर पड़ रहा है, विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र पर जो मौजूदा आर्थिक सुस्ती का एक बड़ा कारण है।

चिकित्सा- इस समय कोरोना वायरस ने पूरे विश्व में कोहराम मचा रखा है। लेकिन भारत में भी कोरोना महामारी ने बड़ी तेजी से अपने पैर पसार लिए है। वैश्वीकरण के दौर में आजकल के वायरस इतने ताकतवर हैं कि जिनके इलाज को खोजने के लिए वर्षों लग जाते हैं। कोरोना इसी का एक उदाहरण है। मेरे ध्यान में नहीं आता कि भारत ने कभी किसी महामारी की दवा को दुनिया भर में उपलब्ध कराया हो या उपलब्ध कराने के गंभीर प्रयास किए गए हों। लेकिन वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए हमें किसी देश की तरफ अब हाथ फैलकर बैठने की ज़रूरत नहीं है कि वे हमारे लिए कोई मदद करेंगे या हमारी समस्याओं को हल करेंगे। इसीलिए स्वदेशी चिकित्सा पद्धति में न केवल अनुसंधान की जरूरत है, बल्कि पुरातन भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में भी शोध की दरकार है। कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए हमें अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक मजबूत बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि जिला स्तर के सार्वजनिक अस्पतालों को एक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के रूप में विकसित किया जाये ताकि ग्रामीण लोगों को सभी प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सकें। जिससे मरीजों को सही समय पर इलाज मिलना संभव होगा और साथ ही बड़े अस्पतालों में मरीजों के दबाव भी कम होंगे।

शिक्षा- कोरोना महामारी के खतरे को भांपते हुए केंद्र सरकार ने संपूर्ण भारत में 24 मार्च से 31 मई 2020 तक लॉकडाउन लगाया यानी 67 दिनों की अवधि में लॉकडाउन और अब 01 जून से 31 जुलाई 2020 तक अनलॉक के कारण सारे स्कूल, कॉलेज व उच्च शिक्षण संस्थान बंद पड़े हैं। ऐसे में इसका सीधा असर अध्यापकों और विद्यार्थियों के जीवन पर पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की एक रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना महामारी से भारत में लगभग 32 करोड़ छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है। जिसमें 15.81 करोड़  लड़कियां और 16.25 करोड़ लड़के शामिल हैं। वैश्विक स्तर की बात करें तो यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 14 अप्रैल 2020 तक अनुमानित रूप से दुनिया के 193 देशों के 157 करोड़ छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है। हालांकि कुछ स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों ने जूम, हैंगआउट गूगल मीट, माइक्रोसॉफ्ट टीम और स्काइप जैसे प्लेटफॉर्मों के साथ-साथ यू-ट्यूब और व्हाट्सएप आदि के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण के विकल्प को अपनाया है, जो ऐसे में इस संकट-काल का एकमात्र रास्ता है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा का कुछ क्षेत्रों में इस प्रकार से महिमामंडन किया जा रहा है कि मानो हमारी शिक्षा व्यवस्था की हर समस्या का समाधान इसमें छिपा है। क्या सचमुच ऑनलाइन शिक्षा देश की सारी शैक्षिक जरूरतों का हल है? क्या ऑनलाइन शिक्षा कक्षीय शिक्षा का समुचित विकल्प है और क्या ये भारतीय परिवेश के अनुकूल है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के साथ यह समझना भी जरूरी होगा कि शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं? फिर भी ऑनलाइन शिक्षा को अगर एक रामबाण के रूप में पेश किया जा रहा है तो उसकी वजह या तो लोगों की आधी-अधूरी समझ है या शिक्षा को मुनाफा कमाने का धंधा मानने वाली मानसिकता है। यानी ऑनलाइन शिक्षा के सबसे बड़े प्रवक्ता निजी क्षेत्र के संस्थान ही हैं। लेकिन अकादमिक जगत में इसे लेकर ज्यादा उत्साह नहीं है।

परिवहन- ट्रैफिक, कोरोना वायरस के फैलने का सबसे बड़ा कारण बन सकता है। लॉकडाउन के चलते सभी सड़कें खाली रही और विमान, ट्रेनों का यातायात भी ठप्प रहा। लॉकडाउन जैसे ही खुला सड़कों पर ट्रैफिक पहले की अपेक्षा कम दिखा है, लेकिन इस वायरस के चलते लोगों में चेतना ज़रूर आई है। इसलिए अब बेवजह लोग अपने घरों से बहार नहीं निकलते हैं। शायद बेवजह सड़कों पर निकलने वाली भीड़ वायरस के फैलने का मुख्य कारण बन सकती है। इसलिए दुनिया भर के ट्रैफिक साइंटिस्ट बताते हैं कि कैसे सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए यातायात को जारी रखा जा सकेगा। अब लोग ज्यादा अपने वाहन को प्राथमिकता देंगे क्योंकि यह संक्रमण से बचने का एक बेहतर तरीका होगा साथ ही सार्वजनिक परिवहन को ज्यादा साफ बनाना होगा। बस स्टॉप, बस डिपो और मेट्रो स्टेशन हर जगह को सैनेटाइज किया जाए, साथ ही वाहनों को भी सैनेटाइज किया जाए। अब रेलवे स्टेशन पर स्क्रीनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे मरीजों की पहचान हो सके। परिवहन व्यवस्था में सोशल डिस्टैंसिंग के चलते ओला-ऊबर जैसी सेवाओं में ड्राइवर और यात्री के बीच के संपर्क को खत्म कर दिया जाए। हाल में कोरोना वारियर्स के लिए शुरू की गई टैक्सी सेवा में यह प्रयोग शुरू हुआ है। इसमें प्लास्टिक के जरिए चालक और यात्री के बीच डिस्टैंसिंग की कोशिश की गई है। सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए पैदल चलना यातायात का सबसे सुरक्षित तरीका है। इसलिए इस पर भी जोर देना होगा। फुटपाथ को इतना चौड़ा किया जाए कि लोग एक मीटर की दूरी के नियम का पालन करते हुए सड़कों पर चल सकें। लॉकडाउन के बाद का वक्त पेडेस्ट्रियन और साइकिलिंग को बढ़ावा देने का है। कई शहरों में इसके लिए अर्बन प्लानिंग में बदलाव शुरू भी हो गये हैं। साइकिल में सोशल डिस्टैंसिंस का सबसे ज्यादा पालन होता है। इसलिए भारत में भी इस बदलाव की शुरुआत पोस्ट कोरोना लॉकडाउन काल के लिए ट्रैफिक को लेकर हो चुकी है।

पर्यटन- पर्यटन उद्योग ने कोरोना की मार से हजारों करोड़ के नुकसान की आशंका जाहिर की है। कन्फेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) की पर्यटन समिति ने कोरोना महामारी के पर्यटन उद्योग पर पड़ने वाले असर का आंकलन करके बताया है कि मार्च से अब तक कई भारतीय पर्यटन स्थलों पर बुकिंग का कैंसिलेशन लगभग 90 फीसदी तक बढ़ चुका है। यानी कुल मिलाकर घरेलू और विदेशी पर्यटकों के कारण इस बाजार पर असर पड़ा है। पर्यटन उद्योग से जुड़े होटल, ट्रैवेल एजेंट, पर्यटन सेवा कंपनियों, रेस्तरां, विरासत स्थल, क्रूज, कॉरपोरेट पर्यटन और साहसिक पर्यटन इत्यादि उद्योग भी इससे प्रभावित हुए हैं। अक्टूबर से मार्च के बीच भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों की वार्षिक संख्या 60-65 फीसदी होती है। भारत को विदेशी पर्यटकों से लगभग 28 अरब डॉलर से अधिक की आय होती है। कोरोना महामारी की खबरें नवंबर से आना शुरू हुईं और इसके बाद से यात्रा टिकटों और होटल बुकिंग इत्यादि का कैंसिलेशन शुरू हुआ। सीआईआई का कहना है कि भारत सरकार द्वारा वीजा रद्द करने से यह स्थिति और भी ‘बदतर’ हुई है। भारत में लॉकडाउन के चार चरण खत्म होने के बाद 25 मार्च से बंद पड़े स्मारकों को अनलॉक में सरकार ने 15 जून से पर्यटक स्थलों को खोलने की बात कही। तभी से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इसे लेकर दिशा-निर्देश तैयार कर रहा है, ताकि पर्यटकों को स्मारकों का भ्रमण कराने के साथ ही कोरोना वायरस से उनका बचाव हो सके।

पर्यावरण- कोरोना वायरस के कहर की वजह से दुनिया भर की औद्योगिक गतिविधियां पूरी तरह से ठप्प रही और भारत सहित कई देशों में लॉकडाउन लगाया गया। इससे पर्यावरण को भी फायदा पहुंचा है। पिछले कई दशकों से पृथ्वी की रक्षा कर रही ओजोन परत को जो उद्योगों से नुकसान पहुंचा है, उसमें कमी आने से इसकी हालत में काफी सुधार हुआ है। ओजोन परत को सबसे ज्यादा नुकसान अंटार्कटिका के ऊपर हो रहा था। ‘नेचर’ में प्रकाशित ताजा शोध के अनुसार, जो केमिकल ओजोन परत के नुकसान के लिए जिम्मेदार थे, उनके उत्सर्जन में कमी होने के कारण यह सुधार देखा गया है। मोट्रियल प्रोटोकॉल (1987) समझौते के मुताबिक इस तरह के केमिकल्स के उत्पादन पर बैन लगाया था लेकिन इन हानिकारक कैमिकल्स को ओजोन डिप्लीटिंग पदार्थ (ODS) कहा जाता है। इन पदार्थों की कमी की वजह से दुनिया भर में सकारात्मक वायु संचार बना हुआ है, जिसका असर एंटार्टिका के ऊपर वाले वायुमंडल के हिस्से में भी हुआ है।हाल ही में भारत सहित विश्व के अन्य हिस्सों में लॉकडाउन के दौरान प्रकृति और पर्यावरण के बीच बहुत से बदलाव देखे गये। जिसमें ‘अम्फान’ और ‘निसर्ग’ जैसे चक्रवाती तूफ़ान के साथ साथ बेमौसम बारिश और भूकम्प के झटकों की वजह से पूरे देश में भय का माहौल बना रहा। वैज्ञानिक इस मामले में अभी कोई जल्दबाजी में नहीं दिखाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब औद्योगिक गतिविधियां शुरू होंगी,तब फिर से बड़े पैमाने पर कार्बन डाइ ऑक्साइड और अन्य ओडीएस का उत्सर्जन शुरू होगा और फिर शायद यह पहले की स्थिति न लौट आए। पर्यावरण को इसका कितना फायदा पहुंचा है, इसका आंकलन अभी नहीं हो पा पाया है। फिलहाल सभी का ध्यान दुनिया भर में फैले कोरोना वायरस के खतरे से बचाव पर है। दुनिया भर के शोधकर्ता इस संकट से निपटने के लिए दिन रात लगे हैं, लेकिन दुनिया भर में हो रही प्राकृतिक गतिविधियों पर वैज्ञानिकों की नजरें जरूर हैं।

मीडिया- आज अगर इतने न्यूज़ चैनल न होते तो हम कोरोना जैसी महामारी से कैसे लड़ते? लॉकडाउन को नीचे तक कैसे ले जा पाते? इतिहास गवाह है कि 1894 में जब प्लेग की महामारी चीन के युन्नान से शुरू होकर भारत में फैली, तब जनता उससे कितनी अनजान थी और इसीलिए भारत उस बीमारी का आसानी से शिकार भी बना। कोरोना काल में मीडिया से हमारा मतलब सिर्फ खबर चैनलों से नहीं है। बल्कि सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया से भी है।अपने यहां चौबीसों घंटे समाचार देने वाले भारतीय भाषाओं के सैकड़ों चैनल न होते तो कोरोना से लड़ने में ‘लॉकडाउन’ को सफलतापूर्वक लागू करने में क्या-क्या दिक्कतें आतीं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कब, क्या करें और क्या न करें? घर में बंद रहें या बाहर निकलें। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ करें और मुंह पर ‘मास्क’ पहनें या ‘गमछा’ या रूमाल लपेटें। हाथ धोते रहें। डरने की जरूरत नहीं। आस्था रखें,ऐसे संदेश घर-घर तक पहुंचाये गये। इसलिए‘लॉकडाउन’ को डब्लूएचओ तक ने सराहा है। लेकिन ‘कोरोना’ के खतरे ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया है। हां! प्रिंट मीडिया पर ज़रूर संकट मंडराया है। इसका कारण है प्रिंट मीडिया का ज्यादा‘फिजीकल’होना। बिजनेस बंद होने से उनके विज्ञापन के साथ-साथ उसके पेज भी कम हुए हैं। पाठक ‘डिजिटल पेपर’ या ‘ई-पेपर’ की ओरज़रूर हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का जो हिस्सा किसी तरह अपने को बचाए हुए है, वह प्रशंसा का पात्र है। यकीनन जब हालात सामान्य होंगे तो एक फिर बार प्रिंट मीडिया में वैसे ही उभार दिखेंगे, जैसा कि आपातकाल के बाद देखने को मिला था।

जातीय व्यवस्था-कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन के कारण पूरे देश के सामने जो आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था की नकारात्मक तस्वीरें सामने आईं, जिसमें कहीं न कहीं जाति, धर्म व क्षेत्र के आधार पर शोषण का शिकार होना पड़ा। लॉकडाउन की मार सबसे अधिक गरीब दलित-आदिवासी मजदूर पर पड़ी, जो रोजी-रोटी के लिए एक शहर से दूसरे शहरों में जाकर काम की तलाश करता है। भारत में जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, तभी से उनके सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया था। जब वे लॉकडाउन के दौरान पैदल ही अपने घरों की ओर  निकल पड़े, तो क्वारंटाइन में जातीय मतभेद देखने का मिला यानी संकट की इस घडी में हमें कई बार इंसानियत के नाते एक दूसरे के मदद की बहुत ज़रूरत होती है। जिसमें पुराने मतभेदों को भुलाकर विपरीत परिस्थितियों से लड़ना पड़ता है लेकिन हमारे देश में जातीय व्यवस्था का इतिहास एक रेखीय नहीं है। कई बार बुरे वक़्त में व्यक्ति, समाज और देश का जब सबसे बुरा पक्ष उभरकर सामने आता है तो ऐसे में मानवता के बीच की खाई और भी चौड़ी हो जाती है, जो पहले से समाज में मौजूद होती है। कोरोना के समय में जहां सब फील गुड जैसा फील हो रहा है, वहां सब सकारात्मक ख़बरें टीवी न्यूज़ चैनल, रेडियो और प्रिंट मीडिया के माध्यम से लिखी जा रही हैं और पूरे राष्ट्र ने ऐसे लोगों का स्वागत भी किया। लेकिन ऐसे समय में देश का दलित-आदिवासी और शोषित वर्ग कोरोना महामारी के चलते दम तोड़ता रहा, जिनके सामने रोजी-रोटी का सवाल सबसे पहले था और इस दौर में इंसानियत, समाज और देश के कुछ नकारात्मक पहलू भी हमारे सामने उभरकर आये हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. लेखक डॉ. ललित कुमार क्षेत्रीय केंद्र कोलकाता, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में मीडिया के प्राध्यापक हैं, इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Dastavej.in उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार DASTAVEJ.IN के नहीं हैं, तथा दस्तावेज न्यूज हिंदी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है”