कोरोना वायरस: कोरोना की जंग में मजदूरों के पिछड़ते सवाल, टुकड़ों-टुकड़ों की राहत से आसान नहीं रास्ताः जायसवाल

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डॉ. विवेक जायसवाल

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष

आज समूची दुनिया एक ऐसे चक्र में फंसी है जैसा पिछले कई सदियों में नहीं देखा गया. एक ऐसा अदृश्य शत्रु समूची मानवता के लिए संकट बना हुआ है. नए साल की शुरुआत ही संकट से हुई है. दुनिया के लगभग सभी कोने इस संकट से घिरे हुए हैं. लाखों मनुष्य अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं. कोरोना महामारी का रूप धारण कर चुका है. यह संकट कब खत्म होगा इसका कोई ठीक-ठीक आंकलन किसी के पास नहीं है. ऐसा नहीं है दुनिया में कभी महामारियां नहीं फैलीं. प्लेग और हैजा जैसी महामारियों से भी दुनिया के बहुतेरे हिस्से ग्रसित रहे और समय के साथ इससे उबरे भी. समूचा मानव समाज इस नये संकट से भी उबरेगा लेकिन जिस रूप में और जिस समय में यह संकट पूरी दुनिया के सामने आया वह काफी डराने वाला और खतरनाक है. इसके भयानक दुष्परिणाम भी होंगे.

भारत जैसे देश में कहा जा रहा है कि ‘लॉक डाउन’ जैसे विकल्प को अपनाकर इस वायरस की बढ़ती रफ़्तार पर काबू करने की कोशिश की गई है. काफी हद तक यह संक्रमण की रफ़्तार को कम करने में कामयाब भी रहा है लेकिन यह सभी जानते हैं कि लॉकडाउन इसका असली इलाज नहीं है. देश की कितनी व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं, कितने लोग इस त्वरित निर्णय से प्रभावित हुए हैं इसका ठीक-ठीक आंकड़ा किसी के पास नहीं है और आने वाले समय में यह आंकड़ा किसी के पास होगा भी नहीं. क्योंकि ‘लॉकडाउन’ जैसी स्थिति में आंकड़े के लिए कोई सर्वे या पड़ताल हो भी नहीं सकता. इस संबंध में किये जाने वाले दावों की भी पुष्टि नहीं हो सकती.

समाज के हर तबके पर असर तो पड़ा है लेकिन बहुत सारे तबके ऐसे हैं जिनके बारे में सोचकर रूह काँप उठती है. वह है रोज कमाने-खाने वाला वर्ग. चाहे वह छोटा व्यापारी हो या मजदूर हो. सबकी हालत एक जैसी हो गई है. लोग पहले से ऐसी स्थिति के लिए तैयार नहीं थे. लोगों के पास ऐसी स्थितियों का कोई अनुभव नहीं था. अचानक भागमभाग हुई, इसी का नतीजा था कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में हजारों-लाखों लोग पैदल ही घर जाने को निकल पड़े. कुछ रास्ते में ही दम तोड़ गये, कुछ घर पहुंचकर बेदम हो गये. रास्ते में होने वाली कठिनाइयाँ जो हुईं उनकी कल्पना करना किसी के वश की बात नहीं.

मूल सवाल यह है कि वे मजदूर जो घर पहुँच गये या अभी भी लाखों की तादात में देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे हैं उनकी जिंदगी कैसी कट रही है. कई मजदूर तो परिवार के साथ रह रहे हैं. कई तो झोपड़पट्टियों में रह रहे हैं और कई तो प्लेटफ़ॉर्म और बड़े-बड़े पुलों के नीचे ज़िन्दगी गुजार देते हैं. उनके जीवन, उनके खाने और उनके स्वस्थ्य का ख्याल कौन रख रहा है और कैसे रख रहा है? उनकी खबर लेने वाला कोई है भी या नहीं. समाज के कुछ संवेदनशील लोग टुकड़ों-टुकड़ों में उनको राहत तो पहुँचा रहे हैं लेकिन कोई एक ठोस व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई है. हाल ही में बड़े उद्योगों को कुछ शर्तों के साथ शुरू करने की बात कही गई है. हवाई जहाज़ों के संचालन की बात की जा रही है. लेकिन मजदूरों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी इस पर कोई ठोस उपाय नहीं सुझाए गये हैं.

बड़े शहरों में कई मजदूरों के पास अपना घर नहीं होता, अपनी रसोई नहीं होती. ऐसे में यदि राशन दे भी दिए जाएँ तो उनका क्या फायदा? उनके पास बड़े शहरों के राशन कार्ड नहीं हैं. कईयों के पास बैंक खाते अभी भी नहीं हैं. परिवार का मुखिया जो शहर में फंसा है यदि उसके खाते में पैसे आये भी तो उन पैसों का क्या फायदा? उनकी मानसिक स्थिति क्या ऐसी है कि वे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें. वे अपने घरों से दूर रहकर घर की आजीविका के साधन हैं. रोज कमाने वाले ये मजदूर अपने घरों को क्या भेजें? कंपनियों, सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों को तो एक हद तक ‘लॉकडाउन’ अवधि के वेतन भुगतान करने की बात कही गई है लेकिन उन मजदूरों की सुध कौन ले रहा है जो शहर के अलग-अलग चौराहों पर खड़े होकर रोज काम की तलाश करते हैं और काम मिला तो कमाई हुई नहीं अपने ठीहों पर वापस लौट गए. रिक्शा-ठेले वालों, गुमटी दुकानदारों के दिन कैसे बीत रहे होंगे जिनकी कमाई का जरिया सड़कों पर चलने वाली भीड़ होती है. 

सरकार द्वारा जिस भी तरह की राहत की घोषणाएं की गई हैं उनके बारे में सरकार भी जानती है कि वे नाकाफी हैं. यह भी सत्य है कि कोरोना की जंग अभी बहुत लम्बी चलने वाली है. देश की अर्थव्यस्था की हालत नाजुक होती जा रही है. मजदूर ही एक ऐसा वर्ग है जो देश की बहुत सी औद्योगिक इकाइयों को अपने खून-पसीने से सींचकर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाता आया है. गाँव से लेकर शहर, खेती से लेकर बड़ी-बड़ी मिलें मजदूरों के श्रम के बिना शून्य हैं.

सवाल बहुत हैं और जटिल भी हैं. लेकिन इन सवालों को हल करने की पहल करने की जरूरत है ताकि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ इन मजदूरों और इनके परिवारों को राहत मिल सके. इस चक्र में फंसे मजदूरों के सामने कई मुश्किल सवाल हैं. वे शहरों में रुके रहें या अपने-अपने गाँव जाएँ. शहरों में रोजगार की आस लगाए ये मजदूर रोज ‘लॉकडाउन’ खुलने का इन्तजार कर रहे हैं. वे कहाँ जायेंगे ये भी ठीक-ठीक उन्हें नहीं मालूम. कुछ के लिए घर जाना भी एक समस्या ही है क्योंकि अपनी हालातों से मजबूर होकर उन्होंने शहरों की ओर रुख किया था.

इस संकट के समय में देश के मजदूर वर्ग और रोज की कमाई करने वाले वर्ग के साथ खड़े होने की जरूरत है, वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ. यह काम केवल किसी एक तंत्र के भरोसे नहीं संभव है. इसमें उन सभी तबकों को साथ आने की जरूरत है जिनके श्रम का लाभ उन्हें मिलता रहा है. बड़ी कंपनियों, मिलों के मालिकों, राज्य सरकार, केंद्र सरकार सबको मिलकर कुछ नया और ठोस पहल करने की जरूरत है ताकि मौजूदा संकट के समय में उनके जीवन, सम्मान और गरिमा के साथ न्याय हो सके. उद्योग और श्रमिकों को लेकर बने कानूनों में भी ऐसे बदलावों की जरूरत है जिससे इस तरह के संकटों के समय पल भर में वे बेचारगी के साथ न देखे जाने लगें. निश्चित तौर पर ये बादल छंट जायेंगे लेकिन एक उजाले की आस अभी भी बाकी है.  

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. लेखक डॉ. हरीसिंह गौर विवि सागर, म.प्र. में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यापन में है, इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Dastavej.in उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार DASTAVEJ के नहीं हैं, तथा दस्तावेज न्यूज हिंदी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है