भारतीय राजनीति के वे दिग्गज जो 2018 में दुनिया को अलविदा कह गए

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2018

यह साल देश की सियासत में कभी चमकते सितारे रहे राजनेताओं के दुनिया से विदा होने का साल भी रहा. भारत के बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में शुमार किए जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का निधन इसी साल हुआ. इसी तरह दक्षिण भारत की सियासत को नई दिशा देने वाले और कई बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे एम करुणानिधि भी 2018 में दुनिया छोड़कर चले गए. भारत में दो राज्यों के मुख्यमंत्री रहने का गौरव हालिस करने वाले एकमात्र नेता नारायण दत्त तिवारी का निधन भी इसी साल हुआ. पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दिग्गज और लंबे समय तक वामपंथी राजनीति की एक धुरी रहे सोमनाथ चटर्जी का निधन भी इसी साल हुआ. इन चारों दिग्गजों के बारे में कहा जा सकता है कि ये खूब लंबी जिंदगी जिये, लेकिन राजनीति के लिहाज से बेहद कम उम्र के कहे जा सकने वाले कर्नाटक के अनंत कुमार का निधन भी इसी साल हुआ.

अटल बिहारी वाजपेयी

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लंबे समय से बीमार चल रहे थे. 2004 में प्रधानमंत्री पद से हटने के कुछ सालों के अंदर ही वाजपेयी की सेहत जो बिगड़नी शुरू हुई तो बिगड़ती ही चली गई. उनकी हालत ऐसी हो गई थी कि उनके लिए लोगों को पहचानना और उनसे बातचीत करना संभव नहीं रह गया था. तकरीबन एक दशक तक इस हालत में रहने के बाद वाजपेयी का निधन 16 अगस्त, 2018 को नई दिल्ली में हुआ.

वाजपेयी के निधन को विभिन्न दलों के नेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों ने राजनीति में एक युग का अंत बताया. एक ऐसे दौर में जब राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एक खास संस्करण को थोपने की कोशिश सत्ताधारी दल द्वारा की जा रही है तो भाजपा के ही प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी के उदार राष्ट्रवाद और उदार हिंदुत्व की चर्चा उनके निधन के बाद भी लगातार होती रही. आज जम्मू-कश्मीर में जो स्थिति है, उसे देखते हुए भी अक्सर भाजपा के विरोधी और राज्य के अलगाववादी नेता तक वाजपेयी को याद करते रहते हैं.

एम करुणानिधि

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के सर्वेसर्वा और पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे एम करुणानिधि का निधन सात अगस्त, 2018 को चेन्नई में हुआ. वे भी पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. 2016 में एआईएडीएमके की जे जयललिता का निधन हुआ था. इन दोनों के जाने के बाद तमिलनाडु की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है क्योंकि पिछले कुछ दशकों में तमिलनाडु की राजनीति पूरी तरह से इन्हीं दो दिग्गजों के आसपास केंद्रित रही है. इन दोनों के निधन के बाद न तो एआईएडीएमके में नेतृत्व को लेकर स्पष्टता है और इससे कोई बहुत अच्छी स्थिति करुणानिधि की पार्टी में भी नहीं है.

स्टालिन नेतृत्व की भूमिका में जरूर हैं लेकिन जो कद करुणानिधि का प्रदेश में और यहां तक की राष्ट्रीय राजनीति में भी था, उस कद को हासिल करने के लिए अभी स्टालिन को लंबा सफर तय करना होगा. पहले जयललिता और बाद में करुणानिधि के निधन का ही असर है कि तमिलनाडु में आज भारतीय जनता पार्टी भी अपने लिए संभावनाएं तलाश रही है और रजनीकांत भी इस शून्य को भरने की कोशिश कर रहे हैं.

नारायण दत्त तिवारी

एक दौर ऐसा था जब नारायण दत्त तिवारी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाता था. इस पद तक तो वे नहीं पहुंचे लेकिन वे अकेले ऐसे व्यक्ति रहे जिनके नाम दो प्रदेशों का मुख्यमंत्री बनने का गौरव है. वे तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और एक बार उत्तराखंड के. नारायण दत्त तिवारी और विवादों का बड़ा गहरा रिश्ता रहा है. रोहित शेखर के साथ उनका लंबा कानूनी विवाद चला और बहुत बाद में उन्हें रोहित शेखर को अपना पुत्र मानने के लिए बाध्य होना पड़ा. जब वे आंध्र प्रदेश के राज्यपाल थे तो उस वक्त भी एक सेक्स स्कैंडल में फंस गए थे और उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

कांग्रेसी दिग्गज की पहचान रखने वाले नारायण दत्त तिवारी आखिरी दिनों में भाजपा के करीब आते दिखने लगे थे. 2017 के उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के लिए उन्होंने भाजपा को समर्थन देने की घोषणा की थी. हालांकि, वे भाजपा में शामिल नहीं हुए थे. 18 अक्टूबर, 1925 को जन्मे नारायण दत्त तिवारी का निधन 93 साल की उम्र में 18 अक्टूबर को ही दिल्ली में हुआ.

सोमनाथ चटर्जी

सोमनाथ चटर्जी की पहचान वैसे वामपंथी नेता की रही जो अपने सियासी सफर में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं पर मजबूती से टिका रहा. हालांकि, लोकसभा के स्पीकर पद पर रहते हुए एक बार ऐसी स्थिति आई जब उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठे. उनकी पार्टी मनमोहन सिंह सरकार से अलग हो रही थी और पार्टी की ओर से उन पर दबाव बनाया गया कि वे स्पीकर पद से इस्तीफा दे दें. लेकिन सोमानाथ चटर्जी ने स्पीकर की भूमिका को दलीय राजनीति से ऊपर समझते हुए स्पीकर का पद नहीं छोड़ा. इस वजह से उन्हें पार्टी से भी निकाला गया.

कभी वामपंथी राजनीति के धुरी और सबसे मुखर चेहरे रहे सोमनाथ चटर्जी 2009 में लोकसभा स्पीकर पद से हटने के बाद राजनीतिक तौर पर एकाकी जीवन ही जीते रहे. सक्रिय राजनीति में उनकी वापसी नहीं हो पाई. 13 अगस्त, 2018 को कोलकाता के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. पिछले तीन सालों से उनकी तबीयत ठीक नहीं थी.

अनंत कुमार

अनंत कुमार का निधन 12 नवंबर, 2018 को हुआ. यह खबर काफी चौंकाने वाली रही, क्योंकि यह बताया गया कि कैंसर की वजह से उनका निधन हुआ. जबकि उनकी बीमारी के बारे में लोगों को पता भी नहीं था और कुछ समय पहले तक अनंत कुमार पूरी तरह से सक्रिय थे. इसी साल हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों के दौरान और नतीजे आने के बाद राजनीतिक जोड़-तोड़ में भी वे सक्रिय दिख रहे थे. अनंत कुमार जब गए तो उस वक्त वे केंद्रीय मंत्री के तौर पर काम कर रहे थे.

अनंत कुमार के निधन से कर्नाटक में भाजपा के लिए अगले लोकसभा चुनावों के लिहाज से राजनीतिक चुनौतियां बढ़ गई हैं. बीएस येद्दियुरप्पा 75 के पार हैं. विधानसभा चुनावों में सरकार बनाने को लेकर जो किरकिरी हुई, उसकी वजह से येद्दियुरप्पा की छवि भी खराब हुई. ऐसे में अनंत कुमार के रूप में भाजपा के पास एक ऐसा चेहरा था जिसकी न सिर्फ पूरे कर्नाटक में अपनी पहचान थी बल्कि वे भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में भी शुमार किए जाते थे. अब भाजपा को येद्दियुरप्पा की बाद की राजनीति के लिए कोई नया चेहरा विकसित करना होगा.

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