पड़ताल-4ः उत्तराखंड-बदहाल शिक्षा व्यवस्था-बच्चों का भविष्य अंधकार में, जिम्मेदार कौन?
देहरादून। उत्तराखंड शिक्षा विभाग प्रदेश ही नहीं बल्कि राष्ट्र स्तर पर अधिकारियों की सबसे लम्बी फ़ौज रखता है,लेकिन निर्णय ऐसे लेता है कि जिससे बच्चों के भविष्य का संवारना तो दूर अंधकार की गर्त में जाने से बचा पाना मुश्किल है। अचंभित करने वाली बात है कि जिस प्रदेश में अंग्रेज़ी अनिवार्य विषय नहीं है उस प्रदेश में विज्ञान विषय को अंग्रेज़ी में पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया गया है। मजेदार बातय यह है कि व्यवस्था तो लागू हो जायेगी, लेकिन धरातल पर उसे कैसे पूरा किया जायेगा। इसकी जानकारी न तो विभागीय अधिकारियों को है और न सरकार को।
उत्तराखंड एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहाँ शिक्षा विभाग गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए कम और रोज़गार देने के लिए ज़्यादा चर्चाओं में रहता है। उत्तराखंड में सार्वजनिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी यह नहीं रही कि समाज के सबसे कमजोर तबके के बच्चे तक गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मुहैया करा कर समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाए बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि बिना परिणाम की परवाह किए विभागीय अधिकारी बेसुध होकर कुछ भी शासनादेश जारी करवा देते हैं फिर वह बच्चों के भविष्य को कहीं भी क्यों न धकेल दे ।
कक्षा तीन से पाँच तक पर्यावरण विज्ञान तथा कक्षा छह से नौ तक विज्ञान विषय को अंग्रेज़ी में पढ़ाया जाएगा ऐसा अनिवार्य कर दिया गया है, लेकिन शिक्षकों को खुद इतनी अंग्रेज़ी आती है या नहीं विभाग को इससे कोई मतलब नहीं। मज़ेदार है कि बच्चा अंग्रेज़ी के स्थान पर माध्यमिक स्तर पर संस्कृत विषय का चयन कर सकता है लेकिन विज्ञान विषय को उसे अंग्रेज़ी में पढ़ना अनिवार्य है ।
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इतना ही नही जिन अध्यापकों को इस वर्ष से विज्ञान विषय को अंग्रेजी में पढाना है उनमें कई अध्यापकों ने इस संबंध में अपनी शिकायत उच्च अधिकारियों तक भी भेज दी है। इन अध्यापकों का कहना है उनकी अंग्रेजी ऐसी नही है कि वह विज्ञान विषय को अंग्रेजी में पढा सके। जिससे साफ होता है कि शिक्षा विभाग आने वाले समय में ऐसे छात्रों को तैयार करेगा तो न तो विज्ञान विषय को ठीक से समझ पायेगा और न अंग्रेजी को। जबकि नई प्रदेश सरकार नई शिक्षा नीति का ढोल पीट रही है कि नई शिक्षा नीति से एक नई पौध तैयार होगी, लेकिन सच तो यह है कि अधिकारियों को इससे कोई सरोकार नही है।
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उत्तराखंड शिक्षा विभाग शिक्षा के मुद्दों पर तो मौन रहता है।यह एक ऐसा प्रदेश है जहाँ व्यवस्था ही शिक्षा पर भारी पड़ती दिखती है। प्रदेश में कितने ही ऐसे विद्यालय हैं जो शिक्षक विहीन हैं और केवल व्यवस्था पर ही चलते हैं क़ानूनन तो ये विद्यालय ही नहीं कहे जा सकते हैं, राज्य के सरकारी विद्यालयों में कुल छात्र संख्या कितनी है विभाग के पास यू डाइज़ के अलावा इस आँकड़े का दूसरा कोई स्रोत ही नहीं हैं । हेड मास्टर के पदों पर बिना काउन्सलिंग के पदोन्नति कर पदस्थापना कर दी गयी। विभाग में प्रशासनिक अकादमिक की खाई इतनी चौड़ी है कि अधिकारियों द्वारा शासन को नियमावली उपलब्ध ना कराने के कारण एससीईआरटी डायट के 2013 के शासनादेश को सरकार आज तक लागू नहीं कर सकी, जिसका ख़ामियाज़ा शिक्षा में आउट्कम आधारित गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमों की अनुपलब्धता के साथ साथ केंद्र से इन संस्थान के कार्मिकों का वेतन ना मिलने के कारण आर्थिक रूप से भी प्रदेश की कमर टूट रही है ।
शिक्षा विभाग में प्रधानाचार्य को विभागीय (प्रशासनिक) अधिकारी के योग्य नहीं माना जाता है इसलिए एक शिक्षक तो प्रधानाचार्य से आगे पदोन्नति नहीं पा सकता किंतु विभागीय अधिकारियों को एससीईआरटी और डायट के अकादमिक पदों के योग्य समझा जाता है और उन्हें इन संस्थानों में ट्रान्स्फ़र पोस्टिंग दे दी जाती है । संयुक्त निदेशक स्तर के अधिकारी को प्रभारी निदेशक बना कर अधिकारियों में जूनियर सीनियर का भेद समाप्त कर अव्यवस्था को बढ़ावा दिया जाता है। इन ख़ामियों के कारण ही आनंदम, डाउट क्लीयरिंग डे, मिशन कोशिश, इंग्लिश स्पीकिंग डे जैसे प्रभावहीन व बिना आउट्कम के कार्यक्रम काग़ज़ों पर तो चलाए जाते हैं लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में किसी भी प्रकार का सकारात्मक असर नहीं डाल पाते है। ऐसे कार्यक्रम जिनके आउट्कम को मापा नहीं जा सकता है केवल भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं और मंत्री तथा शासन स्तर की बैठकों में विभागीय अधिकारियों की ढाल बन कर उच्चाधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने का कार्य आसान कर देते हैं जबकि धरातल की हक़ीक़त से कोसों दूर रहते हैं ।