मोदी सरकार ने किया RTI में बदलाव, अब आसान नहीं होगा सूचना प्राप्त करना
सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 में जिस तेजी के साथ केंद्र सरकार ने बदलाव किया है, उससे कई सवाल खडे हो गये है। विपक्ष से लेकर सामाजिक संगठन भी सरकार के खिलाफ मुखर हो गये है। सूचना के अधिकार अधिनियम के बदलाव के बाद लोगों के मन में भी सरकार की नीति को लेकर सवाल खडे हो गये है। आम लोगों को लगता है कि जब नोटबंदी के आंकड़े सरकार देने से मना करती रही या चुप्पी लगाए रही, उसकी सूचनाएं सिर्फ़ आरटीआई से बाहर आ पाईं.राजस्थान में 10 लाख पेंशनभोगियों की पेंशन बंद कर दी गई थी. आरटीआई से जानकारी आई कि वे सभी ज़िंदा हैं मरे नहीं हैं जैसा कि सरकारी काग़ज़ में दिखाया जा रहा है. लेकिन मौजूदा बदलाव के बाद कई सवाल खडे होने शुरू हो गये है।
राष्ट्रपति की मुहर के बाद आरटीआई में संशोधन लागू हो जाएगा. नए संशोधन के तहत केंद्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी. साथ ही सूचना आयुक्तों का सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर का दर्ज़ा भी ख़त्म हो जाएगा.
विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार ने आरटीआई एक्ट को कमज़ोर करने के लिए संशोधन किया है जबकि न तो इसमें बदलाव की कोई मांग थी और ना ही ज़रूरत. हालांकि सरकार इन आरोपों को ख़ारिज कर रही है कि आरटीआई संशोधन बिल से इसकी स्वायत्तता कमज़ोर होगी. कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह का कहना है कि इस तरह के आरोप बेबुनियाद हैं और इनका कोई आधार नहीं है.
जितेंद्र सिंह ने कहा, ”नियम कैसे बनाए जाएं उसके लिए संशोधन अनिवार्य था. सेक्शन 27 में संशोधन लाया गया है. आरटीआई की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का संबंध सेक्शन 12 (3) से है. इसके साथ सरकार ने कोई छेड़छाड़ नहीं की है.”
आरटीआई एक्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है कि केंद्र सरकार बिना कारण इस क़ानून को कमज़ोर करने में लगी हुई थी.वो कहते हैं, “केंद्र और राज्य के चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें केंद्र सरकार जब तय करेगी तो स्वायत्तता कहां रह जाएगी. ये संघीय प्रणाली पर भी एक बहुत बड़ा आक्रमण है.”
निखिल डे के अनुसार, “अभी तक सूचना आयुक्तों का दर्ज़ा चुनाव आयुक्तों और सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर था. इसका मतलब ये था कि अगर इन्हें किसी भी सरकारी महकमे से सूचना निकालनी होती थी तो ये दर्जा उन्हें सक्षम बनाता था.”
आरटीआई एक्ट की धारा 13, 16 और 27 में संशोधन किया गया है. ये वो प्रावधान हैं जो आरटीआई आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल और उनका दर्ज़ा निर्धारित करते हैं.
निखिल डे का कहना है कि ये क़ानून में ही लिखा है और उस समय की स्टैंडिंग कमिटी में सर्वसम्मति से इसे मंज़ूर किया गया था कि सूचना आयुक्तों को पूरी स्वायत्तता और वैसा दर्जा दिया जाए ताकि वो सक्षम हों.आरटीआई एक्ट में बदलाव को लेकर यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और लोकपाल आंदोलन के अगुवा रहे अन्ना हजारे ने भी आपत्ति जताई है.
भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला समेत कई मुख्य सूचना आयुक्तों ने सरकार से इस संशोधन बिल को वापस लेने की अपील तक की थी.वजाहत हबीबुल्लाह का कहना है इस संशोधन से सूचना आयुक्तों की ख़ुदमुख़्तारी पर असर पड़ेगा.वो कहते हैं, “सूचना आयोग के सामने जो 90 फ़ीसदी मामले आते हैं उनमें सरकार से ही सूचना लेकर लोगों को दिया जाता है. लेकिन अगर उसी सरकार को आयुक्तों की सेवा शर्तें तय करने का अधिकार दे दिया गया है तो ज़ाहिर है कि इस क़ानून में कमज़ोरी आ गई है.”
लोग मानते रहे हैं कि आज़ादी के बाद सरकार पर लोगों की निगरानी का एक बड़ा हथियार रहा है. आरटीआई और इसने लोकतंत्र को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाई है.निखिल डे का कहना है कि आज की तारीख़ में इस देश में 60 से 80 लाख लोग सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं. अब तक 80 आरटीआई एक्टिविस्ट इसके लिए अपनी जान गंवा चुके हैं.लोग मोहल्ले की राशन की दुकान से सूचनाएं मांगते हुए पूरे देश का हिसाब मांगने लगे और देश के सबसे बड़े दफ़्तरों पर भी जनता की निगरानी बढ़ी.
उनके अनुसार, जिस नोटबंदी के आंकड़े सरकार देने से मना करती रही या चुप्पी लगाए रही, उसकी सूचनाएं सिर्फ़ आरटीआई से बाहर आ पाईं.राजस्थान में 10 लाख पेंशनभोगियों की पेंशन बंद कर दी गई थी. आरटीआई से जानकारी आई कि वे सभी ज़िंदा हैं मरे नहीं हैं जैसा कि सरकारी काग़ज़ में दिखाया जा रहा है.