ख़बर स्पेशलः अनिष्ट की आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं धधकते जंगल
प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड के जंगल धधक रहे हैं और प्रदेश के वन मंत्री से लेकर प्रमुख वन संरक्षक को इसकी चिंता नहीं है। जंगल में आग हर रोज धधकती जा रही है। वन विभाग और उसके कारिंदे चैन की बांसुरी बजा रहे। आलम यह है कि वन विभाग से सक्रियता की उम्मीद कहीं नजर नहीं आती। प्रत्येक साल एक के बाद एक हिमालयी जंगल स्वाह हो रहे हैं पर सरकार है कि जंगल की आग पर काबू पाना ही नहीं चाहती। राजधानी में वन विभाग के आला अफसर कागजों का पेट आंकड़ों से भर रहे हैं। वह खूब जानते हैं कि वन के नाम जो लूट मचा रखी है, उसके सारे सबूत आग से ही तो खाक होंगे। लिहाजा उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि कितने वन जल रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि प्रदेश के जंगलों में इसी वर्ष आग लगी हो हर साल प्रदेश के जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। वन विभाग में व्याप्त लापरवाही की हद यह है कि जंगल में भीषण आग की चपेट में गांव के आने की भनक भी वन विभाग के कारिंदों को नहीं लगती है। सिर्फ हरी टहनियों के बूते ग्रामीण जंगल की भयावह आग से जूझते रहते हैं। बिडम्बना देखिए कि पर्यावरण और वन प्रबंधन के नाम पर हर साल करोड़ों रुपए हजम करने वाला फारेस्ट का अमला मोर्चे से गायब हर बार गायब रहता है।
इस बार भी गर्मी शुरू होते ही प्रदेश में जंगलों के धधकने का सिलसिला शुरू हो चुका है। पिछले 24 घंटों के भीतर ही प्रदेश में 18 जगह आग लगी, जिसे बुझाने के लिए वन विभाग के पास कोई व्यवस्था नहीं है। इस घटना के साथ ही फायर सीजन में आग लगने की घटनाओं की संख्या अब बढ़कर 88 हो गई, जिनमें करीब सौ हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ। साढ़े तीन हेक्टेयर प्लांटेशन भी स्वाह हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक दावानल से अब तक की कुल क्षति 116687.5 रुपये आंकी गई है। पिछले चार दिनों से पारे की उछाल के साथ ही राज्य में जंगल भी धधकने लगे हैं।
प्रदेशभर में सोमवार तक दावानल की 70 घटनाएं हुई थीं, जिनमें मंगलवार को 18 का इजाफा हो गया। इनमें गढ़वाल क्षेत्र में 10 और कुमाऊं क्षेत्र में आठ घटनाएं दर्ज की गईं। वन विभाग के मुताबिक राज्य के जंगलों में अब तक आग से 99.285 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसमें कुमाऊं क्षेत्र का साढ़े तीन हेक्टेयर प्लांटेशन भी शामिल है।
प्रदेश में हर साल जंगल जिस तरह से धधक रहे हैं उससे अनिष्ट की आशंकाएं प्रबल हो रही हैं। आग से हिमालय के गर्म होने की प्रकिया तेज होगी जो ग्लेशियरों को गलाने की रफ्तार बढ़ा देगा। रहे-सहे वनपोषित जल स्रोत सूखेंगे और यह गंगा के मैदान के मरूस्थल में बदलने की शुरूआत होगी। इन धधकते जंगलों को बचाने के लिए अगर प्रदेश सरकार ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई तो समूचा हिमालय संकट में पड़ जायेगा।