September 22, 2024

साहित्य के क्षेत्र में महिलाओं का अप्रतिम योगदान

 

सुषमा सिंह पंवार,राष्ट्रीय अध्यक्षा एवं संस्थापक,आदिशक्ति फाउंडेशन 

 

 

स्त्री का जीवन सदैव संघर्ष से परिपूर्ण रहा है, उसके सपने, संवेदनाएँ, योग्यताएँ अमानवीय तथा जर्जर मान्यताओं की जकड़न से दम तोड़ते रहे हैं। उनकी राह आसान नहीं रही उनकी राह में बहुत सी विचारधाराएं दुविधा रही है, पुरुषसत्तात्मक समाज ने सदियों से उसका शोषण और उत्पीड़न ही किया है। कालांतर में समाज और साहित्य में स्त्री-चिंतन का प्रादुर्भाव आधुनिक शिक्षा तथा विचारों की देन है। बीसवीं सदी स्त्री के लिए वरदान साबित हुई है। मन में जल रही मुक्ति की लौ को आधुनिक विचारों की हवा ने ज्वाला का रूप दिया। फलस्वरूप स्त्री के जीवन तथा स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आये और यह परिवर्तन आज भी हो रहे हैं। समकालीन स्त्री उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में स्त्री के बदलते जीवन संदर्भ, बदलती मानसिकता तथा संघर्ष को विशेष स्थान दिया। यह अस्तित्व, अस्मिता और समता के लिए संघर्षरत स्त्री की कथा है। कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल,शशि प्रभा शास्त्री, चन्द्रकिरण जैसी अनेक लेखिकाओं ने स्त्री-चिंतन और स्त्री-लेखन को सार्थकता दी। इनके उपन्यासों में चित्रित स्त्री पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतंत्र, शिक्षित, आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, सबला तथा निर्णय क्षमता से युक्त स्त्री है। वह अपने कार्यों और विचारों से बदलते मूल्यों को अभिव्यक्त करती है। विवाह, मातृत्व जैसे मूल्यों पर सवाल उठा रही है। जहाँ एक ओर वह पुरुषसत्ता का विरोध करती है तो दूसरी ओर उन परंपराओं को स्वीकारती भी है जो मानवता के पोषक हैं।

आज़ादी की लड़ाई के दौरान ज्यादातर साहित्य में देश प्रेम के भावना दिखती थी। उषा देवी मित्रा, सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने समकालीन विषयों को अभिव्यक्ति दी, भारत कोकिला के नाम से प्रसिद्ध सरोजिनी नायडू का मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव समानता की अधिकारी रही है।

आधुनिक युग की महिला कवियत्रीयों में प्रथम नाम श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान का आता है। छायावादी युग की प्रमुख कवियत्रीयों में महादेवी वर्मा का नाम आता है।कविता के क्षेत्र में श्रीमती सुमित्राकुमारी सिन्हा रहीं।

आज़ादी के बाद परिस्थितियां बदलने के साथ ही साहित्य और लेखन में महिलाओं के स्वर और विषयों में भी बदलाव दिखने लगा। नारी मुक्ति की भावना और अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर रूप से उभर कर सामने आयी।

नए परिवेश में पुरुष के साथ बराबरी से कन्धा मिलाकर चलने, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों में बदलाव के साथ साथ वैयक्तिक चेतना ने महिला साहित्य में एक नए स्वर को जन्म दिया। अमृता प्रीतम, शिवानी, कृष्णा सोबती, निरुपमा सेवती, मेहरुन्निसा परवेज़ आदि के लेखन ने नारी मूल्यों को नए सिरे से गढ़ा और एक नयी पहचान दी।

अमृता प्रीतम ने दशकों पहले ही कह दिया था, ‘भारतीय मर्द अब भी औरतों को परंपरागत काम करते देखने के आदी हैं। उन्हें बुद्धिमान औरतों की संगत तो चाहिए होती है पर शादी करने के लिए नहीं। एक सशक्त महिला के साथ की क़द्र करना उन्हें अब भी आया नहीं है।’ वे अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच रखती थीं।

लेखिकाओं ने बंधनों को तोड़ कर स्त्री पर नैतिकता, सहनशीलता और त्याग जैसे थोपे हुए मूल्यों को नकार दिया और उसकी स्वतंत्र अस्मिता को समाज की एक संपूर्ण ईकाई मान कर स्त्री मुक्ति का मुख्य मुद्दा बनाया।

इनके लेखन के केंद्र में स्त्री जीवन की ज्वलंत और भयावह समस्याएं हैं, उन मर्यादाओं की तीक्ष्ण आलोचना है, जिन्होंने हमेशा स्त्री समाज का खुला दमन और शोषण किया।

वर्तमान स्त्री अपने लेखन में स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्षरत और सक्रिय स्त्री रचनाकार स्त्री-हितों की चर्चा स्वयं करने लगी है और अपनी अस्मिता को पहचान रही है।

स्त्री रचनाकार एक बड़े बदलाव के साथ आत्मविश्वास से अपने सुख-दुख, आक्रोश और असहमति को व्यक्त कर रही है। वह समान नागरिक के रूप में पुरुष से किसी अतिरिक्त दया या सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखती। मात्र देह मुक्ति को विमर्श न मान कर वह बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम, सामाजिक रूप से ज्यादा सचेत और परिपक्व है। इनके लेखन के अनुभवों का दायरा वृहद है और इनकी अभिव्यक्ति में स्त्री मन की व्यथा, आकांक्षा और त्रासदी का जीवंत चित्रण है, क्योंकि इनका यथार्थ हमारे समय का भोगा हुआ यथार्थ है। स्त्री साहित्य में आज की स्त्री के जीवन की वास्तविकताएं, संभावनाएं और दासता की दारुण स्थितियों से मुक्ति की दिशाओं का उद्घाटन हुआ है। स्त्री की अपनी पहचान को स्थापित करते हुए इन रचनाकारों ने यह सिद्ध किया कि समाज मे हर तरह के शोषण और अत्याचार का उपभोक्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अधिकतर स्त्री ही होती है, चाहे वह धार्मिक कुरीतियां हों, यौन हिंसा या आर्थिक पराधीनता, युद्ध हो या जातिगत दंगे- विवाद, इन सभी का सबसे बुरा प्रभाव स्त्री पर ही पड़ा है। लेखिकाओं ने बंधनों को तोड़ कर स्त्री पर नैतिकता, सहनशीलता और त्याग जैसे थोपे हुए मूल्यों को नकार दिया और उसकी स्वतंत्र अस्मिता को समाज की एक संपूर्ण ईकाई मान कर स्त्री मुक्ति को मुख्य मुद्दा बनाया।

साहित्य का आदिकाल महिलाओं की कोमल भावनाओं के अनुकूल नहीं था , अतः इस काल में कोई महिला साहित्यकार प्रकाश में नही आई परन्तु उसके पश्चात अन्य सभी कालों में महिलाओं ने साहित्य की वृद्धि में यथा शक्ति योगदान दिया। भक्तिकालीन महिला काव्यकारों में सहजोबाई , दयाबाई और मीराबाई का नाम विशेष है। अक़बर के शासनकाल में ‘राय प्रवीण’ का नाम भी है जो नृत्य और गीत के साथ वह सुन्दर कविता भी करती थी। वह महाकवि केशव की शिष्या थी। इसके बाद ‘ताज’ का नाम आता है। यद्धपि यह मुसलमान थीं फिर भी इन्हें श्रीकृष्ण से प्रेम हो गया था, इनकी कविताएं भक्तिरस से ओत-प्रोत है। ताज के पश्चात शेख़ का नाम आता है ये रंगरेजिन महिला थीं , इन्होंने एक ब्राह्मण कवि से विवाह कर लिया था और उसका नाम आलम रखा था दोनों पति-पत्नी आनन्द से कविता किया करते थे प्रथम पंक्ति में पति प्रश्न करते थे , दूसरी पंक्ति में शेख़ उसका उत्तर देतीं। साहित्य की सभी विद्धाओं पर महिलाओं ने लेखनी चलाई है।

भक्तिकाल में कई कवयत्रियों हुई और इन कवित्रियों द्वारा कविताएं भी लिखी गई परन्तु इनकी कवितायेँ कहाँ गयी ये कोई नहीं जानता भक्ति काल की समस्त कवियित्रियाँ स्त्री काया जनित वेदना और विद्रोह को अभिव्यक्त करती है चाहे वो मीरा हो या लल्लेश्वरी भक्ति में भिगोई इनकी दमनकारी व्यवस्था के प्रति आक्रोश को सहज ही पहचाना जा सकता है !!

परन्तु दुःख की बात ये है की इनमे से कुछ कवयित्रियों की हमें जानकारी है और कुछ कवयत्रियाँ मठवाद हो गयी ! उनके बारे में या उनकी लिखी कविताओं के बारे में कही भी देखने को नहीं मिलता है !!

जहां मीरा के लिखे पद थे तो उन्हें शायद इसलिए भी मिट्टी में दबाना संभव नहीं था क्यूंकि उनके पद राजस्थान व अन्य जातियों के घर घर में गाये जाते थे !!और यही हाल लल्लेशवरी का भी था.. वह कश्मीर से थी और घर घर मे उनकी कविताएँ गाई जाती थी।जिन कविताओं का उल्लेख हमे देखने को नहीं मिला !

नारी भावनाओं की यह अभिव्यक्ति जो कई सदियों से भीतर ही भीतर छटपटा रही थी और आज नारी लेखन में ही अभिव्यक्त हुई , क्यूंकि नारी ने ही नारी की पीड़ा को समझा और नारी ने ही उन्हें समझकर उनकी पीड़ा को शब्द दिए ! जो की एक पुरुष नहीं समझ सकता नारी ने ही उनके जीवन की समस्त व्यथा को लिखा !

नारी साहित्य लेखन एक और स्वातः सुखाय है तो दूसरी ओर जन हिताय है नारी साहित्य इस परिवर्तन युग का शुभचिंतक है।

यद्यपि महिला लेखन आज स्पर्धा के युग में चुनौती है। फिर भी उसे हर स्थिति का सामना करने में उसे किसी वैसाखी की जरूरत नहीं। अपितु वह स्वयं मार्ग ढूंढ स्वयं अपने हस्ताक्षर बना रही है।

अत्यंत सयंत व शालीन बने रहकर सृजन करना भी एक चुनौती है और महिला रचनाकार ऐसा करती आ रही हैं उसे निर्भयतापूर्वक सोचना और लिखना होगा आज की यह जरूरत है।

इतना ही कहूँगी कि नारी धीरे-धीरे आत्मबोध अनुप्राषित हुई है। फिर भी वह अपने ढंग से प्रतिष्ठित होने के लिए संघर्षशील रही है। इसलिए विरोध-अवरोध तिरस्कार-बहिष्कार को नकारते हुए उसे आगे आना होगा। तब ही वह समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह और अपनी सार्थकता को सिद्ध कर पाएगी।
आशा है कि निकट भविष्य में हिन्दी साहित्य को इनकी नवीन साहित्य कृतियाँ और भी अधिक समृद्दिशाली बनाएंगी।

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)


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