September 22, 2024

स्कूल से हटाकऱ शिक्षकों की बीएलओ ड्यूटी लगाना छात्र-छात्राओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ है

12 जुलाई को उत्तराखंड में नई शिक्षा नीति के शुभारंभ के अवसर पर शिक्षा मंत्री माननीय डॉ. धन सिंह रावत ने जोर-शोर से ऐलान किया कि शिक्षकों से अब गैर शैक्षणिक कार्य नहीं लिया जाएगा। वे अब सिर्फ बच्चों को पढ़ाएंगे। शिक्षक संगठनों के साथ शिक्षा विभाग ने भी इस घोषणा को हाथों-हाथ लिया। लम्बे समय से शिक्षकों की ऐसी मांग भी रही है।

लेकिन मंत्री जी के दावे हवा-हवाई हो गए हैं। आजकल शिक्षकों की बीएलओ ड्यूटी लगा दी गई है। बीएलओ ड्यूटी पर तैनात शिक्षक 1 अगस्त से स्कूलों में नहीं हैं। सहायक रजिष्ट्रीकरण अधिकारी के पत्रानुसार वे 24 अक्टूबर तक यही कार्य करते रहेंगे। उपस्थित न होने पर संबंधित के खिलाफ लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 32 के तहत कार्रवाई की चेतावनी भी दी गई है।

शिक्षा की गुणवत्ता संवर्धन संबंधी विभिन्न सर्वे रिर्पोटों और अध्ययनों में शिक्षकों पर गैर अकादमिक कार्यो के बढते बोझ को शिक्षा की गुणवत्ता सुधार में सबसे बड़ी बाधा बताया गया है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिट्रेशन (नीपा) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में स्कूलों के शिक्षकों का काफी समय गैर अकादमिक कार्यो में लग जाता है, जोकि शैक्षिक गुणवत्ता में बड़ी बाधा है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 27 के अनुसार शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्य में लगाने पर रोक है। प्राख्यात शिक्षाविद प्रो. यशपाल ने भी इस संदर्भ में कहा है, ‘‘शिक्षकों पर काफी सारी जिम्मेदारी डाल दी गई है। यह मान कर चला जा रहा है कि उन्हें कहीं भी लगा दो, यह ठीक नहीं है। अकादमिक कार्यो पर ध्यान देना जरूरी है।’’

यह विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है यह सब समझते हैं, बावजूद इसके शिक्षकों को बीएलओ की ड्यूटी में झोंकना तमाम अध्ययनो, रिर्पोटों और गुणवत्ता सुधार संबंधी विभिन्न अनुसंशाओं की धज्जियों उड़ाना है। यह आरटीई एक्ट का स्पष्ट उल्लंघन भी है। मंत्री जी की घोषणा का माखौल जो उड़ रहा सो अलग है।
छात्रों के भविष्य के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है उसकी किसी को कोई चिंता नहीं है। जुलाई से लेकर अक्टूबर-नवम्बर का समय विद्यालयों में गहन पढ़ाई, मासिक परीक्षाएं तथा विभिन्न शैक्षिक और पाठ्यसहगामी गतिविधियों-क्रियाकलापों के संचालन-सम्पादन का समय होता है। इसके बाद तुरन्त अर्धवार्षिक परीक्षाएं हो जाती हैं। बीएलओ ड्यूटी में संलग्न शिक्षकों का कोर्स पूरा नहीं हो पाता है जिससे बच्चों के परीक्षाफल पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

पहले से ही कई कार्य है शिक्षकों के पास

शासन-प्रशासन की बात छोड़िए, शिक्षा विभाग के अधिकारियों को भी लगता है कि विद्यालयों में शिक्षकों के पास कोई काम ही नहीं है। इसका महत्वपूर्ण कारण विभागीय अधिकारियों के द्वारा विद्यालय के कार्यों और पठन-पाठन व्यवस्था का सही मूल्यांकन और अनुश्रवण का अभाव है। इस कारण स्कूलों में इतने कार्यक्रम और आदेश आते रहते हैं कि उनके चक्कर में जो सबसे बड़ा नुकसान होता है वो होता है बच्चों की पढ़ाई का। शिक्षकों के पास पहले से ही पठन-पाठन के साथ कई पाठ्यसहगामी, पाठ्येत्तर और गैरशैक्षणिक कार्यों की जिम्मेदारियां हैं। यथा- मध्याहन भोजन हेतु राशन-पाणी, तेलमासाले का इंतजाम, स्कूल में निर्माण कार्यों, बिजली, पानी, शौचालय, भवन रखरखाव के सम्पादन की जिम्मेवारी, कक्षाअध्यापक की बड़ी जिम्मेदारी का कार्य, विद्यार्थियों का प्रवेश, वजीफा, बैंकखाता खुलवाना, आधार कार्ड बनवाना, समग्र शिक्षा की विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन, उनकी सूचनाएं तैयार करना, बिलबाउचर इकट्ठे करना, कैशबुक, लेजर, स्टाक पंजिका तैयार करना, आडिट कराना, जनगणना, आर्थिक गणना, बाल गणना, पशुगणना, मतदाता सूची, मतदाता पहचान पत्र, बीआरसी-सीआरसी से पुस्तक उठान, पाठ्यपुस्तक वितरण, वाचनालय, लाइब्रेरी, स्काउटिंग-गाइडिंग, रेडक्रास, खेल गतिविधियां, स्वास्थ्य संबंधी कार्य यथा- पल्स पोलियो अभियान, कोविड टीकारण, कृमिनाशक गोलियां खिलाना, विद्यालयों में विभिन्न राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय दिवसों को मनाना, वृक्षारोपण, स्वच्छता पखवाड़ा, प्रवेशोत्सव, स्वगतोत्सव, आनन्दम कार्यक्रम, प्रतिभादिवस, शंकासमाधान दिवस, इंगलिश स्पीकिंग डे, परख कार्यक्रम, मासिक परीक्षाएं, एक भारत श्रेष्ठ भारत कार्यक्रम, विज्ञान महोत्सव, इंस्पायर एवार्ड, गणित क्विज, कैरियर काउंसिलिंग, जिज्ञासा, बाल चैपाल/शोध मेला, कौशलम् कार्यक्रम, सतत व्यावसायिक दक्षता विकास, राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम, राष्ट्रीय कला उत्सव, मातृभाषा उत्सव आदि-आदि। इसके साथ विद्यार्थियों के पठन-पाठन और पाठ्यक्रम पूरा करने की जो सर्वप्रमुख जिम्मेदारी शिक्षकों पर होती है वो तो है ही।

विद्यालयी शिक्षा विभाग ने विद्यालयों में पठन-पाठन और इन गतिविधियों के संचालन हेतु दो कैलेण्डर जारी किये गए हैं। ‘शैक्षिक पंचांग’ के नाम से एक पंचाग निदेशक माध्यमिक शिक्षा उत्तराखण्ड के द्वारा अपै्रल माह में जारी किया गया और दूसरा ‘शैक्षिक गुणवत्ता संवर्धन वार्षिक कैलेण्डर’ के नाम से निदेशक अकादमिक शोध एवं प्रशिक्षण, उत्तराखण्ड के द्वारा सितम्बर माह में जारी हुआ है। ये विद्यालयों में उलझन को बढ़ाने वाली हरकतें हैं। निदेशालय स्तर पर आपसी तालमेल का अभाव है जिसका खामियाजा विद्यालयों को भुगतना पड़ता है। दोनो कैलेन्डरों को एक ही बनाया जा सकता था लेकिन फिर अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग कैसे अलापा जा सकता है।

इनमें से अधिकांश कार्यक्रमों के सम्पादन का महत्वपूर्ण समय सितम्बर-अक्टूबर ही होता है। यही पढ़ाई का महत्वपूर्ण समय भी होता है। जबरन बीएलओ ड्यूटी लगाने से सबसे पहले वो काम प्रभावित होता है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जिसके लिए विद्यार्थी स्कूल आते हैं, जिसके लिए अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं। वो महत्वपूर्ण कार्य है पठन-पाठन। उसके बाद पाठ्यसहगामी क्रियाकलाप भी प्रभावित होने लगते हैं।

विद्यालयों की लचर व्यवस्थाएं

सरकार के द्वारा विद्यालयों के लिए की गई लचर व्यवस्थाएं किसी से छुपी नहीं हैं। अधिकांश विद्यालयों में प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक, कार्यालय सहायक, चतुर्थ श्रेणी कर्मी नहीं हैं। विद्यालयों में पूरे शिक्षकों का होना भी एक सपने की तरह है।

तिदुर्गम-दुर्गम में तो अध्यापकों, कार्यालय सहायकों और चतुर्थ श्रेणी कर्मी की तो जरूरत ही नहीं समझी जाती है। सामान्य विद्यालयों में प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक, कार्यालय सहायक, परिचारक आदि सभी प्रकार के कार्यों का निर्वहन शिक्षकों के द्वारा ही किया जाता है। महानिदेशालय, विद्यालयी शिक्षा निदेशक माध्यमिक, प्रारम्भिक, आकादमिक शोध निदेशालय, एस.सी.ई.आर.टी., समग्र शिक्षा, डीईओ, सीईओ, बीईओ, स्वास्थ्यविभाग, समाजकल्याण, शिक्षा से जुड़े एनजीओ सहित एक दर्जन से अधिक विभागों के विभिन्न कार्यक्रम तथा पत्र विद्यालयों में आते हैं। विद्यालयों में इन कार्यक्रमों का क्रियान्वयन तथा पत्रों पर कार्यवाहियां करना ये सब शिक्षकों के जिम्मे होता है। बाकी सारे आफिस पत्रों को ऊपर से प्राप्त कर नीचे की ओर सरकाने की भूमिका में होते हैं। सभी के हाथों में प्रशासनिक डण्डा भी होता है जो विद्यालयों पर तना रहता है।

शिक्षकों की तनावपूर्ण जिम्मेदारियों और किस्म-किस्म के सैकड़ों अव्यावहारिक, उलझनभरे कार्यक्रमों के मध्य एक निरीह प्राणी होता है प्रधानाध्यापक/प्रधानाचार्य। बिना अधिकार का अधिकारी। विभाग की बेतरतीब और अव्यावहारिक योजनाओं और कार्यक्रमों को विद्यालय स्तर पर लागू करने के लिए उच्चाधिकारी प्रधानाध्यापक/प्रधानाचार्य पर प्रशासनिक डण्डा भांजते रहते हैं।

नीचे से शिक्षकों के तनाव और उलझने। इन दो पाटों के बीच पिसने वाला असहाय सा जीव है प्रधानाध्यापक/प्रधानाचार्य। जबकि इस पूरी शिक्षा व्यवस्था में विद्यालय सबसे महत्वपूर्ण, मजबूत और साधन सम्पन्न ईकाई होनी चाहिये थी। विद्यालय प्रमुख प्रधानाध्यापक/प्रधानाचार्यों को सर्वाधिक ताकतबर, साधन और अधिकार सम्पन्न होना चाहिए था। लेकिन हालात ऐसे बना दिये गए हैं कि अध्यापकों के साथ-साथ वो खुद भी प्रबंधक, बाबू, शिक्षक, चतुर्थ श्रेणी आदि सभी भूमिकाओं में होता है। हमारी व्यवस्थाओं ने ऐसे ही हालात पैदा कर दिए हैं।

एक शिक्षक जो कि उच्चस्तरीय शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त होता है तथा लेबिल-8 एवं 9 स्तर का कर्मी होता है। उसकी विशेषज्ञता शिक्षण में होती है। उनसे बीएलओ स्तर का कार्य लेना न सिर्फ शिक्षक की क्षमताओं, मानवसंसाधन और आर्थिक संसाधनो का दुरूपयोग है साथ ही शिक्षकों के लिए अपमानजनक, तनावपूर्ण और उलझन भरा भी है। वो शिक्षण में पारंगत हो सकता है आंकड़े एकत्र करने, डाटा कलेक्सन और लिपिकीय कार्यों में नहीं।

शिक्षकों से लिए जाने वाले इस तरह के गैरशैक्षणिक कार्यों को आउटसोर्सिंग से कराया जा सकता हैं। किसी आउट ऐजेंसी से ये कार्य लिया जा सकता है। और भी कई तरीके हो सकते हैं शिक्षकों पर थोपे जा रहे गैरशैक्षणिक कार्यों को कराने के। लेकिन इस पर तो तब विचार किया जायेगा जब विद्यालय में शिक्षक की महत्ता, शिक्षण और विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण में शिक्षक की जिम्मेदारियों को समझा जाय, उसे महत्ता दी जाय। एक शिक्षक के लम्बे समय तक विद्यालय में न होने से विद्यार्थियों को होने वाले नुकसान का मूल्यांकन किया जाय। समझा जाय कि इस पूरी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक अग्रिम पंक्ति पर लड़ने वाला योद्धा है। वो कमजोर हुआ तो सारे मोर्चे रेत के महल की तरह ढह जाएंगे। शिक्षक नींव का पत्थर है। वो हिला तो चमक-धमक और हनक के साथ खड़ी शिक्षा की पूरी मीनार पलभर में ध्वस्त हो जाएगी।


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