सावित्री बाई फुले : महिला शिक्षा और आधुनिकता की ध्वजवाहक.
इन्द्रेश मैखुरी
देश में महिला शिक्षा और आधुनिकता की अलख जगाने वाली सावित्री बाई फुले की आज जयंती है. 3 जनवरी 1831 को पुणे से 50 किलोमीटर दूर नईगांव में उनका जन्म हुआ. 9 वर्ष की उम्र में 12 वर्षीय ज्योतिराव फुले से उनका विवाह कर दिया गया. सीखने की सावित्री बाई की लगन देख कर ज्योति राव फुले ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया.
खुद पढ़ते हुए सावित्री बाई को शिक्षा का महत्व भी समझ में आया और 1847 में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल शुरू किया. शुरू में 8-9 लड़कियां ही उनके स्कूल में आई पर साल भर होते-होते यह संख्या बढ़ कर 40-45 हो गयी. हालांकि लड़कियों को शिक्षा की यह मुहिम आसान नहीं थी. सोचिए तो धर्म कैसी खतरनाक शै है,जो कैसी-कैसी चीजों से खतरे में आ जाता है ! सावित्री बाई द्वारा धर्म की निर्धारित चौहद्दी के बाहर शिक्षा को ले जाने की कोशिशों को ब्राह्मणों ने धर्म के विरुद्ध और धर्म के लिए खतरा करार दिया. नतीजा सावित्री बाई का प्रचंड विरोध हुआ. वे स्कूल जाती तो रास्ते में उन पर पत्थर,गोबर आदि गंदगी फेंकी जाती. लड़कियों और दबे कुचलों को शिक्षा देने की फुले दंपति की कोशिशों के विरोध ने ज्योतिबा के पिता को तक भयभीत कर दिया. फलतः दोनों पति-पत्नी को 1849 में घर से निकाल दिया गया. लेकिन इतने विरोध के बावजूद शिक्षा को लेकर इस दंपति के कदम डगमगाये नहीं.
1849 में ही शूद्र और अति शूद्र वयस्कों के लिए उन्होंने पुणे के उस्मान शेख वाड़ा में स्कूल शुरू किया. इस स्कूल में सावित्री बाई, पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख के साथ पढ़ाती थी.1851 तक सावित्रीबाई,ज्योति बा फुले के साथ मिल कर तीन स्कूल संचालित करने लगी थी,जिनमें 150 लड़कियां पढ़ती थी. 1855 आते-आते फुले दंपति ने रात्रि स्कूल भी शुरू कर दिया. यह ऐसे किसान-मजदूर वयस्कों और दबे-कुचले लोगों के लिए था,जो पढ़ना तो चाहते थे पर दिन में स्कूल नहीं जा सकते थे.
महिला अधिकारों के लिए और खास तौर पर विधवा महिलाओं के उत्पीड़न के विरुद्ध भी सावित्रीबाई फुले ने संघर्ष चलाया. 1852 में उन्होंने महिला सेवा दल का गठन किया. इस संगठन के जरिये वे महिलाओं को उनके अधिकारों,गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक करने का अभियान चलाती थी. विधवाओं के सिर मुंडवाने की प्रथा के खिलाफ उन्होंने पुणे और मुंबई में नाइयों की हड़ताल करवाई.
समाज में विधवा महिलाओं के साथ होने वाले शोषण के खिलाफ सावित्रीबाई ने मजबूती से संघर्ष चलाया. कम उम्र में शादी होने के चलते,उस जमाने में छोटी उम्र की विधवा बच्चियाँ और युवतियाँ की संख्या पुणे और उसके आसपास के गांवों में काफी थी. इन विधवाओं का यौन शोषण होता था,जिसके चलते, इनमें से कुछ गर्भवती हो जाती थी. फिर इसके लिए भी ये महिलाएं प्रताड़ना का शिकार होती थी और बेहद असुरक्षित तरीके से इनका गर्भपात करा दिया जाता था. विधवा महिलाओं को इस जानलेवा प्रताड़ना से बचाने के लिए 28 जनवरी 1853 को सावित्रीबाई ने गर्भपात प्रतिबंधित गृह की शुरुआत की,जो भारत में अपनी तरह का पहला आश्रय स्थल था.
यौन शोषण की शिकार विधवा महिलाएं, यहां बच्चे को जन्म दे कर,उन्हें वहाँ छोड़ कर जा सकती थी. 1863 में फुले दंपति ने विधवा महिलाओं के लिए अनाथालय भी शुरू किया,जहां वे बच्चों को जन्म दे कर,बिना समाज के भय के रह सकती थी. ऐसी ही एक ब्राह्मण विधवा के बेटे को फुले दंपति ने गोद लिया और वह बालक यशवंत राव आगे चल कर डाक्टर बना. ये कदम, उस जमाने में ही नहीं आज भी बेहद क्रांतिकारी कदम हैं.
सावित्री बाई ने कवितायें लिखी और उनका पहला कविता संग्रह 1854 में “काव्यफूले” के नाम से प्रकाशित हुआ. ज्योतिबा के भाषणों का सम्पादन और प्रकाशन भी सावित्रीबाई ने किया. 1876 और 1898 के अकाल में फुले दंपति ने कई इलाकों में निशुल्क भोजन बांटा और 52 निशुल्क भोजन आवास शुरू किए.
महिला शिक्षा और समाज में उपेक्षित,वंचित तबकों के लिए जीवन पर्यंत प्रतिबद्ध रहने वाली सावित्रीबाई फुले की मृत्यु भी समाज सेवा करते हुए. 1897 में प्लेग के मरीजों की सेवा करते हुए,वे स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गयी और 10 मार्च 1897 को इस दुनिया से रुखसत हो गयी.
1998 में सावित्रीबाई के सम्मान में भारत सरकार ने उन पर डाक टिकट जारी किया.
भारत में पहली महिला शिक्षक और पहली महिला प्रधान अध्यापक तथा महिलाओं,वंचित उपेक्षितों के लिए आजीवन संघर्षरत रही सावित्री बाई फुले को इंकलाबी सलाम !