November 23, 2024

जनादेश बता देगा …मोदी ढल रहे है…शाह उग रहे है…राहुल गढ रहे है !

38297932 2137210576560666 1591213051623768064 n

पांच राज्यो के चुनाव प्रचार में तीन सच खुल कर उभरे । पहला , अमित शाह बीजेपी के नये चेहरे बन रहे है । दूसरा , काग्रेस का सच गांधी परिवार है और राहुल गांधी के ही इर्द-गिर्द नई काग्रेस खुद को गढ रही है । तीसरा , 2014 में देश के रक्षक के तौर पर नजर आते नरेन्द्र मोदी भविष्य की बीजेपी के भक्षक के तौर पर उभर रहे है । पर तीनो के अक्स में कही ना कही 2014 में लारजर दैन लाइफ के तौर पर उभरे नरेन्द्र मोदी है और उनकी छाया तले देश की समूची राजनीतिक सियासत का सिमटना है । और चार बरस बाद संघर्ष करते हुये राजनीति के हर रास्ते ये बताने से नहीं चूक रहे है कि छाया लुत्प हो चुकी है । 2019 की दिशा में बढते कदम एक ऐसी राजनीति को जन्म दे रहे है जिसमें हर किसी को अब अपने बूते तप कर निकलना है । क्योकि परत दर परत परखे तो ये पहला मौका रहा जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने नरेन्द्र मोदी से ज्यादा चुनावी रैलिया की । और इससे पहले नरेन्द्र मोदी की चुनावी रैलिया बीजेपी ही नहीं देश भर के लिये संदेश होती थी कि मोदी कितने लोकप्रिय है । क्योकि उसमें खूब भीड होती थी । औसतन डेढ घंटे तक नरेन्द्र मोदी का भाषण चलता था ।

कमोवेश उसी तर्ज पर इस चुनाव प्रचार में अमित शाह की चुनावी रैलियो में भी भीड जुटी . अमित शाह के भाषण लंबे होने लगे । मोदी का भाषण राजस्थान के प्रचार में तो तीस मिनट तक आ गिरा । पर शाह का भाषण औसतन 45 से 50 मिनट रहा ।  तो बीजेपी के भीतर ये सवाल काफूर हो गया कि सिर्फ मोदी की ही चुनावी रैली में भीड जुटती या भाषण का कन्टेट सिर्फ मोदी के पास  है । यानी एक विश्लेषण ये भी हो सकता है कि भीड जब जुटानी ही है तो फिर रैली किसी भी नेता की हो वह जुट ही जायेगी और भीड के आसरे रैली की सफलता या नेता की लोकप्रियता को आंकना गलत है । और दूसरा विश्लेषण ये भी कहता है कि नरेन्द्र मोदी ने ही ढील दी कि अगर उनकी पीठ पर 2014 के वादो का बोझ है तो फिर अमित शाह बोझ रहित है । यानी रणनीति के तहत अमित शाह को आगे किया गया । लेकिन पहली बार चुनावी प्रचार के थमने के बाद जब जनादेश का इंतजार देश कर रहा है तो ये सवाल चाहे अनचाहे हर जहन में होगा ही अगर वाकई बीजेपी तीनो राज्यो में हार गई तो क्या होगा । क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया को परखे तो उसकी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी की छवि हार के बावजूद बनाये रखने की दिशा गढनी शुरु हो चुकी है । एक तरफ ये परोसा जा रहा है कि छत्तिसगढ, मध्यप्रदेश और वसुंधरा में बीजेपी सीएम की पहचान तो नरेन्द्र मोदी के केन्द्र पटल पर आने से पहले ही खासी पहचान वाली रही है । और तीनो ही 2013 में अपने बूते जीते थे । तो इन बार तीनो की अपनी परिक्षा और अपना संघर्ष है । यानी नरेन्द्र मोदी का इन चुनाव से कोई लेना देना नहीं है । तो दूसरी तरफ ये भी कहा जाने लगा है केन्द्र और राज्य को चलाने वाले नेताओ की अदा में फर्क होता है । राज्य में सभी को साथ लेकर चलना जरुरी है लेकिन केन्द्र में ये जरुरी नहीं है क्यकि प्रधानमंत्री की पहचान उसके अपने विजन से होती है । 

जैसे इंदिरा गांधी थी । वैसे ही नरेन्द्र मोदी भी अकेले है 

यानी चुनावी हार का ठिकरा मोदी के सिर ना मढा जाये या फिर जिस अंदाज में नरेन्द्र मोदी चार महीने बाद अपने चुनावी समर में होगें वहा उन्हे उनके तानाशाही रवैये या उनकी असफलता को कोई ना उभारे , इस दिशा में मोदी बिसात मिडिया के ही जरीये सही पर बिछायी तो जा रही है । तो एक संदेश तो साफ है कि  पांच राज्यो के जनादेश का असर बीजेपी में जबरदस्त तरीके से पडेगा और चाहे अनचाहे मोदी से ज्यादा अमित शाह के लिये जनादेश फायदेमंद होने वाला है । क्योकि आज की तारिख में अमित शाह की पकड बीजेपी के समूचे संगठन पर है । सीधे कहे तो जैसे नरेन्द्र मोदी ही सरकार है वैसे ही अमित शाह ही बीजेपी है । और 2019 में अगर मोदी का चेहरा चूकेगा तो बीजेपी को 2019 के समर के लिये तैयार होना होगा और तब चेहरा अमित शाह ही होगें । ऐसे हालात में कोई भी सवाल खडा कर सकता है कि क्या नरेन्द्र मोदी ऐसा होने देगें । या फिर क्या फर्क पडता है मोदी की जगह अमित शाह ले लें । क्योकि दोनो है तो एक दूसरे के राजदार । तो दोनो को एक दूसरे से खतरा भी नहीं है । लेकिन बीजेपी का भविष्य बीजेपी के अतित को कैसे खारिज कर चुका है ये वाजपेयी – आडवाणी की जोडी से मोदी-शाह की जोडी की तुलना करने पर भी समझा जा सकता है । वाजपेयी और आडवाणी के दौर में बीजेपी की राजनीति आस्था और भरोसे पर टिकी रही । और दोनो ही जिस तरह एक दूसरे के पूरक हो कर सभी को साथ लेकर चले उसमें बीजेपी के संगठन में निचले स्तर तर सरोकार का भाव नजर आता रहा । संयोग से मोदी अमित शाह के दौर में सिर्फ आडवाणी या जोशी को ही बेदखल नहीं किया गया बल्कि काम करने के तरीके ने बतलाया कि किसी भी काबिल को खडे होने देना ही नहीं है और सत्ता के लिये अपने अनुकुल सियासत ही सर्वोपरि है । तो यही मैसेज बीजेपी संगठन के निचले पायदान तक पहुंचा । यानी अमित शाह अगर 2019 के रास्ते को बनायेगें तो सबसे पहले उनके निशाने पर नरेन्द्र मोदी ही होगें इसे कोई कैसे इंकार कर सकता है । दरअसल धीरे धीरे ये रास्ता कैसे और क्यो बनता जा रहा है ये भी चुनाव प्रचार के वक्त ही उभरा । क्योकि बीजेपी शासित तीनो राज्यो में बीजेपी की जीत का मतलब बीजेपी के क्षत्रप ही होगें मोदी नहीं ये तीनो के प्रचार के तौर तरीको ने उभार दिया । जहां तीनो ही मोदी सत्ता की उपलब्दियो को बताने से बचते रहे और मोदी भी अपनी साढे चार बरस की सत्ता की उपलब्धियो को बताने की जगह काग्रेस के अतित या सत्ता की ठसक तले काग्रेसी नेताओ को धमकी देने की ही अंदाज में ही नजर आये । दरअसल मोदी इस हकीकत को भूल गये कि भारत लोकतंत्र का अम्यस्त हो चुका है । यानी कोई सत्ता अगर किसी को धमकी देती है तो वह बर्दाश्त किया नहीं जाता । हालाकि 2014 में सत्ता में आने के लिये मोदी की धमकी जनता को रक्षक के तौर पर लगती थी । इसलिये ध्यान दिजिये तो 2013-14 में जो मुद्दे नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे , उसके दायरे में कमोवेश समाज के सारे लोग आ रहे थे । और सभी को मोदी अपने रक्षक के तौर पर नजर आ रहे थे । इसलिये पीएम बनने के बाद नरेन्द्र मोदी का हर अभियान उन्हे जादुई ताकत दे रहा था । लेकिन धीर धीरे ये जादू काफूर भी हुआ लेकिन मोदी खुद को बदल नहीं पा रहे है क्योकि उन्हे अब भी अपनी ताकत जादूई छवि में ही दिखायी देती है । उसलिये राफेल पर खामोशी बरत कर जब वह अगस्ता वेस्टलैंड में मिशेल के जरीये विपक्ष को धमकी देते है तो जनता का भरोसा डिगने लगता है । क्योकि ये हर किसी को पता है कि अंतर्ष्ट्रीय कोर्ट से मिशेल बरी हो चुके है और भारतीय जांच एंजेसी या अदालत किस अंदाज में काम करती है । बोफोर्स में वीपी सिंह के दौर में क्या हुआ ये भी किसी से छुपा नहीं है । यानी कोरी राजनीतिक धमकियो से साढे चार बरस गुजारे जा सकते है लेकिन पांचवे बरस चुनाव के वक्त ये चलेगें नहीं । और जिस रास्ते अमित शाह ने बीजेपी के संगठन को गढ दिया है उसमें चुनावी हार के बाद शाह की पकड बीजेपी पर और ज्यादा कडी होगी क्योकि तब 2019 की बात होगी और शिवराज, रमन सिंह या वसुंधरा को कैसे पार्टी संगठन में एडजस्ट किया जायेगा ये भी सवाल होगा ? लेकिन इसके सामानातंर काग्रेस की जीत और हार के बीच राहुल गांधी ही खडे है । और काग्रेस के लिये गांधी परिवार ताकत भी है और कमजोरी भी ये बात पांच राज्यो के जनादेश के बाद खुल कर उभरेगी ।

चुकि 2014 के बाद ये दूसरा मौका है कि बीजेपी और काग्रेस आमने सामने है । इससे पहले गुजरात और कर्नाटक के चुनावी फैसले ने बाजी एक एक कर रखी है । और अब तीन राज्यो में बीजेपी की सत्ता को अगर काग्रेस खिसका नहीं पायी तो ये राहु गांधी की सबसे बडी हार मानी जा सकती है लेकिन प्रचार के तौर तरीको ने बता दिया कि राहुल गांधी के अलावे काग्रेस में ना तो कोई दूसरा नेता है और ना ही काग्रेस किसी दूसरे नेता को परखना चाहती है । यानी राहुल गांधी का कद ही काग्रेस का कद होगा और काग्रेस की हार भी राहुल गांधी की ही हार कहलायेगी । तो ऐसे हालात में काग्रेस की जीत राहुल गांधी को काग्रेस के भीतर इंदिरा वाली छवि के तौर पर स्थापित भी कर सकती है जहा वह 1977 की हार के बाद 1980 में दूबारा सत्ता पा गई थी । हालाकिं खुद को नये सिरे से गढते राहुल गांधी ने प्रचार के दौरान काग्रेसी ओल्ड गार्ड को ये एहसास करा दिया कि 2014 के हार के पीछे 2012-13 में काग्रेसी मंत्रियो का अहम भी था । जो सत्ता के मद में चूर हो कर जनता से ही कट गये थे । और इसी का लाभ मोदी को मिला । पर अब राहुल गांधी इस एहसास को समझते हुये ये भी चुनावी प्रचार में जनता को बताते रहे कि सत्ता का रंग मोदी पर भी काग्रेसी अंदाज में कही ज्यादा गाढा है । तो चुनावी प्रचार का असर जनादेश के जरीये मोदी शाह और गांधी तीनो के भविष्य को तय करेगा ये भी तय है ।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *