September 22, 2024

तो हम मिटा देंगे अपने हाथों अपना स्णर्णिम इतिहास!

– दून में आम-लीची के बाग गायब, अब खलंगा के जंगल तो बचा लो
– गोरखाओं के शौर्य का प्रतीक है खलंगा स्मारक

गुणानंद जखमोला

देहरादून के नालापानी स्थित यह जलस्रोत। यहां सुबह से लेकर देर रात तक लोग बोतल, केन, बाल्टी, डिब्बों में पानी भर कर ले जाते हैं। यह जड़ी-बूटी का पानी है जो कि खलंगा के शॉल के जंगलों के कारण निकलता है। इस जलस्रोत पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। सौंग बांध से जलापूर्ति के लिए यहां एक वाटर टैंक बनाया जा रहा है और इसके लिए खलंगा के 1800 से भी अधिक पेड़ काटे जाएंगे। उन पर लाल निशान लगाए जा चुके हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग इसे बचाने के लिए जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं। उन्हें आश्वासन मिला है कि चिल्लाओ मत, फिलहाल पेड़ नहीं कटेंगे।

दून घाटी बदहाल हो रही है। कथित विकास ने पहले यहां से बासमती चावल के खेत छीने। फिर आम और लीची के बाग। अब मोहंड के जंगलों की बलि ले ली गयी है तो सह्रसधारा रोड से गुजरा तो पेड़ के बिना यह सड़क ऐसी लगती है मानो नग्न हो गयी हो। दून में पहले तीन दिन गरमी होती थी तो चौथे दिन बारिश हो जाती थी। अब ऐसा नहीं होता। पारा 40 पार जा रहा है।

दरअसल, विकास की अंधी दौड़ से कहीं अधिक दून की जमीन पर भूमाफिया की नजर है। दून में कत्ल का मास्टर प्लान 2041 बन चुका है। तीन नये शहर बसाने हैं। जमीन नेता, अफसरों, ठेकेदारों और दलालों के लिए सोना उगलती है। साहनी टाइप बिल्डर जब अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाते हैं तो स्यूसाइड कर लेते हैं और जो सक्षम नेता कम बिल्डर हैं, वो जमीन पर जमीन कब्जा रहे हैं। धनवान से और धनवान बन रहे हैं। जब कार, घर, आफिस में सब एसी हो तो उसे 40 डिग्री पार जाते तापमान की फिक्र किसे होगी।

पर्यावरण बचाने की झूठी जिद लिए कुछ सिरफिरे लोगों के साथ कल सुबह खलंगा के जंगल पहुंचा। इमोशनल सीन था। पेड़ों पर रक्षा सूत्र बंधे थे, लेकिन यह यक्ष प्रश्न है कि क्या ये पेड़ बचेंगे? एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल और युवा क्रांतिकारी असिस्टेंट प्रोफेसर शिवानी पांडे के साथ खलंगा वार मेमोरियल तक पहुंचा तो गोरखाली वीरगाथा से रोमांच हो गया।

अक्टूबर, 1814। 3500 अंग्रेजों ने खलंगा के किले पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों के पास बंदूकें और तोपें थीं। गोरखाओं के पास खुंखरी, तलवारें और धनुष-बाण। 600 गोरखा जिनमें बच्चे और महिलाएं भी थे। उन्होंने वीर बलभद्र कुंवर के नेतृत्व में पत्थरों से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया और जनरल जिलेस्पी समेत 31 अफसर और 750 अंग्रेज सैनिकों को मार डाला। 120 गोरखा भी इस युद्ध में शहीद हुए। अंग्रेज जीत गये लेकिन उन्होंने गोरखाओं की वीरता से प्रभावित होकर खलंगा वार मेमोरियल बनाया। 1815 में अंग्रेजों ने गोरखा रेजीमेंट भी स्थापित की गयी।

एक ओर हम देहरादून में सैन्य धाम बना रहे हैं तो दूसरी ओर विकास के लिए खलंगा वार मेमोरियल और उसके इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं। प्रकृति को इतना न सताओ कि प्रकृति बदला लेने पर उतारू हो जाएं। खलंगा के स्वर्णिम इतिहास, जंगल और जड़ी-बूटी वाले पानी के स्रोत को बचा लो। अन्यथा भावी पीढ़ियां तुम्हें माफ नहीं करेंगी। जरा सोचिए।


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