September 22, 2024

जेएनयू की लहुलुहान पगडंडियो पर कभी कीट्स की प्रेम कविताये का जिक्र था…

अटखेलिया खाती इन पंगडंडियो के बीच से गुजरते हुये आपको एहसास प्रकृति का ही होगा । जो सुंदर दृश्य आपकी आंखो के सामने है वह बेहद आसानी से आपको उपलब्ध है । ये आपके भीतर की सुंदरता होगी कि आपके एहसास प्रकृति से जुड जाये आपके भीतर प्रेम जागे । जान कीट्स की कविता ‘ओड टू ए नाइटेंगलट’ को पढियेगा तो समझ जायेगें , प्रकृति कैसे अनुराग को अभिव्यक्ति देती है क्योकिं ‘ सुदंरता ही सत्य है , सत्य सुंदर है ।

इतना ही तो जानने की आवश्यकता है । “ ये संवाद 1988 का है । जेएनयू के गंगा हास्टल ढाबे से ओपन थियटर तक चलते हुये दिल्ली विश्वविघालय के वाइस चासंलर मुनीस रजा का छात्रो के साथ बातचीत । तब जेएनयू के वाइस चासंलर मोहम्मद शफी आगवानी हुआ करते थे । लेकिन जेएनयू को गढने वाले मुनीस रजा को जेएनयू से कुछ ऐसा प्रेम था कि वह अक्सर शाम के वक्त जेएनयू कैपंस पहुंच जाते थे  । जेएनयू के संस्थापको में से एक मुनीस रजा ही वह शख्स थे जिन्होने जेएनयू को कैसे बनाया जाये इसे मूर्त्त रुप दिया । नये कैपस में नदियो नाम पर हर हास्टल का नाम रखा । मसलन गंगा , कावेरी, ब्रहमपुत्र , महानदी आदि । और प्रतिकात्मक तौर भारत की पहचान को जोडने के लिये हास्टल के नाम साबरमती और पेरियार भी रखा गया । यूं शुरुआत में सिर्फ डाउन कैंपस हुआ करता था । जहा अब सीआरपीएफ कैप और कुछ दफ्तर है । और जिस जेएनयू कैपस और हास्टल ने अब खुद को घायल देखा है उसे प्रकृति के समंदर में समेटने की सोच लिये मुनीस रजा तो जेएनयू कैपस में छात्र-छात्राओ की गर्म होती सांसो को भी रोसेटी की कविता ‘ टू ब्लासम ‘ के जरीये मान्यता देने से नहीं कतराते थे । लेकिन अस्सी के दशक में येलावर्ती के जेएनयू वीसी रहते हुये और साल भर के भीतर पीएनश्रीवास्तव को वीसी बनाये के वक्त जिस तरह जेएनयू में पहली बार जबरदस्त हंगामा हुआ उसने इंदिरा गांधी की छवि को धूमिल जरुर किया ।

लेकिन 2019 में जेएनयू का टकराव तो सीधे सत्ता से हो चला है । और लहूलुहान जेएनयू के भीतर छात्र संगठनो के टकराव से ज्यादा बाहर से आये नकाबपोशो की मौजूदगी टराने वाली है । 80 के दशक में दिल्ली पुलिस घोडे पर सवार होकर छात्रो को रौंदते हुये अंदर दाखिल हुई थी । लेकिन इस बार पुलिस की मौजूदगी में जेएनयू घायल हुआ । तब जेएनयू में प्रवेश परीक्षा की प्रक्रिया में बदलाव किया गया था । छात्रो ने कैपस में रह रह अध्यपको पर हमला कर दिया था । तब चालिस छात्रो को कैपंस से बाहर कर दिया गया था ।लेकिन इस बार चालिस से ज्यादा बाहरी नकाबपोश कैपंस में गुसे और पुलिस किसी को रोकना तो दूर लहूलुहान हुये छात्रो की शिकायत को दर्ज करने से आगे बढ ही नहीं पायी । 72 घंटे बाद भी किसी की गिरफ्तारी तक नहीं हुआ । तब इंदिरा गांधी ने विरोध-प्रदर्शन करने वाले छात्रो से किसी तरह की बातचीत से साफ इंकार कर दिया था । लेकिन अब तो छात्रो के टकराव के हालात सत्ता को भी बाहरी नकाबपोश के साथ खडे देख रहे है । और पहली बार बौद्दिक जगत के लोग हो या सिल्वर स्क्रिन लोकप्रिय चेहरे । सामाजिक कार्यकत्ताओ का हुजुम हो या नोबल से सम्मानित जेएनयू के पूर्व छात्र ।

फिर मोदी सत्ता की कैबिनेट में शामिल जेएनयू के पूर्व छात्र हो या देश भर से दिल्ली पहुंचते प्रोफेशनल्स सभी जेएनयू को लेकर बंटे भी है और सडक पर संघर्ष करते हुये भी दिखायी दे रहे है । 38 बरस पहले जेएनयू के हंगामें को लेकर सत्ता में चिंता पैदा हुई थी कि अंतर्ष्ट्रीय तौर पर शिक्षा राजनीति के अड्डे में तब्दिल होकर भारत के शौक्षणिक हालात को दागदार ना कर दें । इसलिये 15 दिन के भीतर ही जेएनयू को लेकर तब की शिक्षा मंत्री शीला कौल ने जेएनयू वीसी से चार बार संवाद बनाये । लेकिन मौजूदा वक्त शिक्षा मंत्री के तौर पर निशंक की सिर्फ इतनी ही भूमिका नजर आयी कि जेएनयू के लहू लुहान होने के बाद वीसी जगदीश को बुलाया गया । जिसके बाद वीसी ने जेएनयू की घटना की निंदा की । और वीसी से लेकर शिक्षा मंत्री की भूमिका और सत्ता की खामोशी से लेकर दिल्ली पुलिस के मूकदर्शक होने को लेकर देश ही नहीं दुनिया भर में सवाल सडक पर हाथो में लहराते प्लेकार्ड से लेकर अखबारो की खबरो और आर्टिकल तक में झलके । और इन हालतो ने छात्रो को शिक्षा व्यवस्था को लेकर कई ऐसे सेंवेदनशील सवाल देश में खडा कर दिये ।जो जामिया या अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सटी या फिर जाधवपुर या उस्मानिया यूनिवर्सिटी में हुये हंगामे से हटकर है । पहली बार जेएनयू में पढते छात्रो के सामने ये भी सवाल है कि क्या सरकार अब शिक्षा पर सब्सिडी देने को तैयार नहीं है । क्या जेएनयू की खुलापन सरकार को बर्दाश्त नहीं है ।

क्या जिस न्यूनतम के संघर्ष में जिन्दगी यापन करने वाले समाज से बच्चे निकल कर जेएनयू पहुंचते है और जिन्दगी में तरक्की के रास्ते आगे बढते है क्या मध्यम वर्ग को समेटी राजनीति को ये भी बर्दाश्त नहीं है । या फिर ग्रामिण और गरीबी के बीच से बेहद कम फीस के साथ शिक्षा पाने के लिये जो छात्र जेएनयू पहुंच जाते है उन्हे वामपंथी सोच के दायरे में रखकर ‘ टुकडे टुकडे गैंग ‘ से परिभाषित कर नकाबपोश हथियारबंद बाहरी छात्रो को देशभक्त बताकर मामले को सियासी दायरे में लाया जा सकता है । इसमें दो मत नहीं है कि जेएनयू में वामपंथियो की छात्र यूनियन इसलिये काबिज रहती है क्योकि वहा सवाल वर्ग सघर्ष से होते हुये पेट के सावल को उठाता है । और जो गरीब-गांव से निकल कर जेएनयू पहुंचते है उन्हे वामपंथ के सवाल अपनी जिन्दगी के करीब लगते है । फिर जेएनयू का खुला वातावरण या वहा पढाई के तौर तरीके देश –दुनिया के हर मुद्दे पर अभिव्यक्त करने का वातावरण भी देते है । जबकि दिल्ली विश्वविघालय या जामिया यूनिवर्सिटी में अभिव्यक्ति की रुकवट तो नहीं है लेकिन गरीब या गांव से सीधे निकल कर आये छात्र भी यहा नहीं है या बेहद कम है ।

पर समझना ये भी जरुरी होगा कि जेएनयू मुंढने वाले करीब साढे आठ हजार छात्रो में पांच हजार से ज्यादा छात्र एमफिल-पीएचडी कर रहे होते है । और चूकि यूनिवर्सिटी पूरी तरह आवासिय है तो आपसी संवाद या अलग अलग विषयो को लेकर तर्क के तौर तरीके भी बेहद भिन्न होते है । बकायदा छात्र यूनियन हर विषयो के जानकार को लेकर शुक्रवार की रात हास्टल की मेस में या फिर आडिटोरियम में सेमिनार भी कराते है । लहूलुहान हुये जेएनयू में 24 घंटे पहले फीस बढोतरी और नई शिक्षा नीति को लेकर भी सेमिनार चल रहा था । और 1969 में जेएनयू की स्थापन के वक्त यही विचार इंदिरा गांधी के सामने मुनीस रजा ने रखा था कि , जेएनयू को अपने नाम यानी नेहरु के विचार को भी जीना होगा और भारतीय पहचान को भी साधन होगा । तभी तो जेएनयू के संविधान में जिक्र किया गया , ‘ राष्ट्रीय एकीकरण , सामाजिक न्याय , धर्मनिरपेक्षता , जिवन के लोकतांत्रिक पहलु , अंतर्ष्ट्रीय समझ और समाज की मुश्किलो को लेकर साइंटिफिक एप्रोच को अपनाना होगा । यूनिवर्सटी का वातावरण जानकारी को लेकर लगातार उर्जावान प्रयास से सराबोर रहे और खुद से सवाल करने की क्षमता पैदा हो ।

 “ और ये उर्जा कैसे प्रकृति से जोड कर मुनिस रजा ने जेएनयू को गढा और 80 के दशक में जब जेएनयू की पगडंडियो से छात्रो के साथ गुजरते तो किट्स की कविता “ अ थिंग आफ ब्यूटी ‘ की लाइनो को सुनाते , ‘ सौंदर्य की खुशी सदैव कायम रहती है , इसकी मधुरता बढती रहती है . यह कभी खत्म नहीं होती…यह एक सपनों भरी नींद है……. ।“ पर पहली बार जेएनयू के सपनो पर हकीकत हावी है जहा पाश घुमडने लगा है..सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना…..

( पुण्य प्रसून बाजपेयी की कलम से ) .


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