आज का उत्तराखंड : जलते जंगल………मरते पहाड़
विकास शिशौदिया
दिल्ली ही नहीं देश के कई शहर धूल और धुएं से घिरे हुए हैं. पर्यावरण में आ रहे बदलावों से महानगर और अन्य शहर ही नहीं, पहाड़ी इलाके भी अछूते नहीं है. उत्तराखंड जैसा राज्य इसकी एक मिसाल है.
उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय बदलावों से हो रहे नुकसान का खामियाजा भुगत रहा है. राजधानी देहरादून समेत कई मैदानी इलाके वायु प्रदूषण के संवेदनशील स्तरों से घिरे हुए हैं. पहाड़ों में ये दुर्दशा एक अलग स्वरूप में नजर आती है जहां बांध परियोजनाओं और बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्यों ने हालात को और चिंताजनक बना दिया है. यहां तक कि 2013 के जलप्रलय से तबाह केदारनाथ धाम और समूची केदार घाटी पुनर्निर्माण के कार्य जिन चरणों से गुजर रहे हैं, वे भी किसी आपदा के कम नहीं बताए जाते.
अंग्रेजों ने अपने दौर में मसूरी, नैनीताल जैसे पहाड़ी स्थलों और देहरादून जैसी शिवालिक और मध्य हिमालय से घिरी घाटी में एक स्वप्निल पर्यावरण को देखते हुए बसेरे बनाए थे, वे जगहें अब अलग अलग किस्म के प्रदूषणों की शिकार हो चुकी हैं. अपने मौसम के लिए विख्यात दून घाटी अब धूल और धुएं और शोर की घाटी है. और उधर, देहरादून को स्मार्ट सिटी मुहिम से जोड़ने के लिए नेतागण जीजान एक किए हुए हैं.
जाने कितने बार नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, एनजीटी, उत्तराखंड सरकार और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को औद्योगिक इकाइयों से उठने वाले प्रदूषण के खतरनाक स्तरों को लेकर फटकार भी लगा चुका है. विशेषज्ञ और निगरानी समितियां बनाने की बातें भी वो कर चुका है लेकिन निवेश और मुनाफा और जीडीपी का आकर्षण भी अब कुदरत में घुले प्रदूषण के समांतर एक मानव निर्मित प्रदूषण की तरह हो गया है. जंगलों की कटान और पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण ने हवा, पानी और मिट्टी के रास्ते उलटपुलट कर रख दिए हैं. इसका परिणाम ये हो रहा है कि अप्रत्याशित रूप से भूस्खलन और अतिवृष्टि की दरें बढ़ी हैं. बाढ़ से तबाही का दायरा फैलता जा रहा है और इनसे जुड़े आर्थिक सामाजिक नुकसान तो जो हैं सो हैं. इस बीच पहाड़ों में जंगल की आग एक नया पर्यावरणीय संकट बन कर उभरा है जो किसी स्मॉग से कम नहीं है.
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने को लेकर भी चिंताएं जताई जा रही हैं. हालांकि इस बारे में विद्वानों और विशेषज्ञों में मतभेद भी हैं. कुछ कहते हैं कि ये कोई असाधारण बात नहीं है और प्रकृति के सैकड़ों हजारों साल के बदलावों में ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना स्वाभाविक है. लेकिन इधर पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की एक बिरादरी पुरजोर तौर पर मानती है कि ग्लेशियरों का पिघलना एक सामान्य घटना नहीं है और ये जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े सूचकों में से एक है. इस बहस से अलग ये एक सच्चाई तो है ही कि पहाड़ों के मौसम अब पहले जैसे तो नहीं हैं. फसल की पैदावार का पैटर्न भी बदला है. गुणात्मक और मात्रात्मक गिरावट दोनों है. पलायन के चलते बड़े पैमाने पर पहाड़ी जमीन बंजर हो रही है. जीवन की इस वीरानी में एक नया माफिया पनप गया है जो निर्माण से लेकर पलायन तक एक बहुत ही संगठित लेकिन अदृश्य रूप से सक्रिय है.
पारिस्थितिकीय परिवर्तनों ने भी उत्तराखंड को एक स्तब्ध स्थिति में पहुंचा दिया है. बेशक अभी भी पहाड़ों में लोग स्वच्छ हवा पा लेते हैं लेकिन ऐसे इलाके सिकुड़ रहे हैं. पर्यटन स्थलों पर भी निर्माण, वाहनों, प्लास्टिक और बसाहटों का बोझ बढ़ गया है. गर्मियों के मौसम में जब लोग पहाड़ों की रानी कही जाने वाली मसूरी के लिए निकलते हैं तो देहरादून पहुंचते ही उनके रोमान को झटके लगने लगते हैं. वाहनों की भीड़, चिल्लपौं और वायु प्रदूषण अब एक नयी सामान्यता बन गये हैं. पर्यटनीय अतिवाद का मसूरी अकेला पीड़ित नहीं है जहां कमाई की हड़बड़ी और पर्यटन के आंकड़ों को सुधारने की होड़ में इस बात पर ध्यान नही दिया जा रहा है कि सड़कों पर वाहनों की इतनी आमद और बेशुमार प्लास्टिक इस्तेमाल, पहाड़ की सेहत के लिए अच्छी नहीं है. हिमालय एक नया पहाड़ है, मध्य हिमालय तो यूं भी कच्चा पहाड़ है, लेकिन उसमें से काटकर बांध भी उभर रहे हैं और सड़कें भी. डायनमाइट के विस्फोट से पहाड़ी नोकों को उड़ाकर तैयार की गई सड़कों पर बारिश के दिनों में भूस्खलन की दरें बढ़ गई हैं. मिट्टी जगह छोड़ रही है, क्योंकि जंगल कट रहे हैं और सड़कें बन रही हैं.
विकास से जुड़ी ये एक विडंबना भी है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं हो सकता कि यातायात और अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए कमोबेश मनमाने तरीके से निर्माण के रास्ते निकाले जाएं. भौगौलिक और भूर्गभीय आकलन और एक कुशल प्रबंधन के साथ साथ विशेष तकनीकी कौशल भी जरूरी है. जिसमें नाजुक पहाड़ियों और चट्टानों का न्यूनतम नुकसान पहुंचे. और अगर नुकसान होता है तो फौरन उसकी भरपाई की जाए. जिसका एक तरीका सुनियोजित और कारगर वृक्षारोपण भी है. इसके नाम पर चीड़ के जंगलों से पहाड़ों को पाट देने की नीति को तो विशेषज्ञ भी गलत और नुकसानदेह ठहरा चुके हैं.
जल प्रदूषण ने भी उत्तराखंड के पर्यावरण में असंतुलन पैदा किये हैं. गंगा का प्रदूषण मिटाने के लिए केंद्र सरकार की करोड़ों रुपए की परियोजनाएं भी लगता है नाकाम हैं क्योंकि पानी की गंदगी जस की तस है. कुल मिलाकर तस्वीर निराशाजनक दिखती है और लगता है कि उत्तराखंड जैसे पहाड़ी भूगोल भी उस दुष्चक्र का शिकार बन चुके हैं जो विकास का एक बेडौल और विवादग्रस्त मॉडल निर्मित करता है. पर्यावरणीय चेतना के अभाव ने रही-सही कसर पूरी कर दी है. जवाबदेही की अनुपस्थिति, प्रशासनिक और शासकीय अनदेखी और आम लोगों का इसे अपनी नियति मान लेने का यथास्थितिवाद- पहाड़ की पर्यावरणीय दुर्दशा के अंदरूनी कारण हैं. असल में पर्यावरण के इन खतरों से निपटने के लिए जरूरत है सामूहिकता की लेकिन लगता है कि इसके लिए कोई भगीरथ प्रयत्न ही करना होगा!